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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 16/ मन्त्र 13
    ऋषिः - दमनो यामायनः देवता - अग्निः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यं त्वम॑ग्ने स॒मद॑ह॒स्तमु॒ निर्वा॑पया॒ पुन॑: । कि॒याम्ब्वत्र॑ रोहतु पाकदू॒र्वा व्य॑ल्कशा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽअद॑हः । तम् । ऊँ॒ इति॑ । निः । वा॒प॒य॒ । पुन॒रिति॑ । कि॒याम्बु॑ । अत्र॑ । रो॒ह॒तु॒ । पा॒क॒ऽदू॒र्वा । विऽअ॑ल्कशा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं त्वमग्ने समदहस्तमु निर्वापया पुन: । कियाम्ब्वत्र रोहतु पाकदूर्वा व्यल्कशा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । त्वम् । अग्ने । सम्ऽअदहः । तम् । ऊँ इति । निः । वापय । पुनरिति । कियाम्बु । अत्र । रोहतु । पाकऽदूर्वा । विऽअल्कशा ॥ १०.१६.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 16; मन्त्र » 13
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (अग्ने त्वं यं समदहः-तम्-उ-पुनः-निर्वापया) हे अग्निदेव ! तूने जिस देश को अन्त्येष्टिसमय जलाया है, उसको तेज से फिर रहित कर दे (अत्र व्यल्कशा पाकदूर्वा) और इस देश अर्थात् दग्धस्थान में विविध पूर्ण शाखावाला दूब घास का पाक आवश्यक जलसिञ्चन से हो जावे ॥१३॥

    भावार्थ - शवाग्नि से दग्ध स्थान को प्रथम अग्नि से रहित करना चाहिए, पुनः उसमें इतना जलसिञ्चन करे, कि जिससे वहाँ अच्छी दूब घास उत्पन्न हो सके ॥१३॥

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