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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 16/ मन्त्र 2
    ऋषिः - दमनो यामायनः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    शृ॒तं य॒दा कर॑सि जातवे॒दोऽथे॑मेनं॒ परि॑ दत्तात्पि॒तृभ्य॑: । य॒दा गच्छा॒त्यसु॑नीतिमे॒तामथा॑ दे॒वानां॑ वश॒नीर्भ॑वाति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शृ॒तम् । य॒दा । कर॑सि । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । अथ॑ । ई॒म् । ए॒न॒म् । परि॑ । द॒त्ता॒त् । पि॒तृऽभ्यः॑ । य॒दा । गच्छा॑ति । असु॑ऽनीतिम् । ए॒ताम् । अथ॑ । दे॒वाना॑म् । व॒श॒ऽनीः । भ॒वा॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शृतं यदा करसि जातवेदोऽथेमेनं परि दत्तात्पितृभ्य: । यदा गच्छात्यसुनीतिमेतामथा देवानां वशनीर्भवाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शृतम् । यदा । करसि । जातऽवेदः । अथ । ईम् । एनम् । परि । दत्तात् । पितृऽभ्यः । यदा । गच्छाति । असुऽनीतिम् । एताम् । अथ । देवानाम् । वशऽनीः । भवाति ॥ १०.१६.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (जातवेदः-यदा-ईम्-एनं शृतं करसि-अथ पितृभ्यः परिदत्तात् ) अग्नि जिस समय इस मृत शरीर को पका देती है, तब ही इस को सूर्यरश्मियों के सुपुर्द कर देती हैं (यत्-एताम्-असुनीतिं गच्छति-अथा देवानां वशनीः-भवाति) जिस समय यह जीवशरीर मरण-स्थिति को प्राप्त हो चुकता है, तभी से यह पृथिवी, जल, अग्नि, वायु आदि देवों का वश्य हो जाता है ॥२॥

    भावार्थ - आत्मा के वियुक्त होते ही यह शरीर पृथिवी आदि भूतों में मिलने लगता है। अग्नि में जलने से सूर्य की रश्मियाँ इस का उक्त छेदन-भेदन जल्दी कर देती हैं ॥२॥

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