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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 168/ मन्त्र 1
वात॑स्य॒ नु म॑हि॒मानं॒ रथ॑स्य रु॒जन्ने॑ति स्त॒नय॑न्नस्य॒ घोष॑: । दि॒वि॒स्पृग्या॑त्यरु॒णानि॑ कृ॒ण्वन्नु॒तो ए॑ति पृथि॒व्या रे॒णुमस्य॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठवात॑स्य । नु । म॒हि॒मान॑म् । रथ॑स्य । रु॒जन् । ए॒ति॒ । स्त॒नय॑न् । अ॒स्य॒ । घोषः॑ । दि॒वि॒ऽस्पृक् । या॒ति॒ । अ॒रु॒णानि॑ । कृ॒ण्वन् । उ॒तो इति॑ । ए॒ति॒ । पृ॒थि॒व्या । रे॒णुम् । अस्य॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वातस्य नु महिमानं रथस्य रुजन्नेति स्तनयन्नस्य घोष: । दिविस्पृग्यात्यरुणानि कृण्वन्नुतो एति पृथिव्या रेणुमस्यन् ॥
स्वर रहित पद पाठवातस्य । नु । महिमानम् । रथस्य । रुजन् । एति । स्तनयन् । अस्य । घोषः । दिविऽस्पृक् । याति । अरुणानि । कृण्वन् । उतो इति । एति । पृथिव्या । रेणुम् । अस्यन् ॥ १०.१६८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 168; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में वात का स्वरूप कहा गया है, वृष्टि से पूर्व प्रचण्ड वायु चलती है, दिग्दिगन्तर लाल रंगवाले हो जाते हैं, उसका दुष्प्रभाव होम से शान्त होता है, इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ -
(रथस्य वातस्य) वेग से गतिशील वात के (महिमानं नु) महत्त्व को अवश्य देखते हैं-वर्णन करते हैं (अस्य घोषः) इसका घोष नाद (रुजन्) वृक्षादि को भग्न करता हुआ (स्तनयन्) शब्द करता हुआ-गूँजता हुआ (एति) प्राप्त होता है (दिविस्पृक्) द्युलोक अर्थात् मेघमण्डल को छूता हुआ (उत) और (अरुणानि कृण्वन्) दिग्-दिगन्तरों को अरुण वर्ण करता हुआ चलता है (पृथिव्याः-रेणुम्) पृथिवी-के रेणु-धूल को (अस्यन्) फेंकता हुआ (एति) चलता है ॥१॥
भावार्थ - वात अन्धड़ का स्वरूप है, वेग से जानेवाला वृक्षों को भग्न करता हुआ और गूँजता हुआ चलता है, आकाश में जाता हुआ इधर-उधर की दिशाओं को लालवर्ण की बना देता है, पृथिवी की धूल को फेंकता हुआ चलता है ॥१॥
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