ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
ऋषिः - देवश्रवा यामायनः
देवता - सरण्यूः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वष्टा॑ दुहि॒त्रे व॑ह॒तुं कृ॑णो॒तीती॒दं विश्वं॒ भुव॑नं॒ समे॑ति । य॒मस्य॑ मा॒ता प॑र्यु॒ह्यमा॑ना म॒हो जा॒या विव॑स्वतो ननाश ॥
स्वर सहित पद पाठत्वष्टा॑ । दु॒हि॒त्रे । व॒ह॒तुम् । कृ॒णो॒ति॒ । इति॑ । इ॒दम् । विश्व॑म् । भुव॑नम् । सम् । ए॒ति॒ । य॒मस्य॑ । मा॒ता । प॒रि॒ऽउ॒ह्यमा॑ना । म॒हः । जा॒या । विव॑वस्वतः । न॒ना॒श॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वष्टा दुहित्रे वहतुं कृणोतीतीदं विश्वं भुवनं समेति । यमस्य माता पर्युह्यमाना महो जाया विवस्वतो ननाश ॥
स्वर रहित पद पाठत्वष्टा । दुहित्रे । वहतुम् । कृणोति । इति । इदम् । विश्वम् । भुवनम् । सम् । एति । यमस्य । माता । परिऽउह्यमाना । महः । जाया । विववस्वतः । ननाश ॥ १०.१७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में परमात्मा, सूर्य और विद्वानों से अनेक लाभ प्राप्त करने के लिये कहा गया है।
पदार्थ -
(त्वष्टा दुहित्रे वहतुं कृणोति) शीघ्रव्यापन धर्मवाला, पदार्थों का स्वरूपदाता सूर्य या परमात्मा, उषा का या दोहने योग्य प्रकृति का गौ की भाँति, विशेषरूप से वहन करता है या अग्रसर करता है (विश्वं भुवनं समेति) सारी वस्तुएँ या भूत प्रकट या दृष्ट हो जाती हैं (यमस्य माता परि-उह्यमाना) काल की निर्मात्री उषा या जगत् का निर्माण करनेवाली प्रकृति जब आगे प्रेरित की जाती हुई या विस्तृत की जाती हुई होती है, तब (महः-विवस्वतः जाया ननाश) महान् सूर्य की जाया रात्रि उसके उदय होने पर विलीन हो जाती है या महान् विशेष निष्पादक परमात्मा की जायाभूत प्रकृति-प्रलयावस्था रूप रात्रि नष्ट हो जाती है ॥१॥
भावार्थ - विश्वरचयिता परमात्मा विश्व को रचने के लिये प्रकृति को विस्तार देकर जगत् का निर्माण करता है; जो जगत् की निर्मात्री प्रकृति पूर्वरूप में नहीं रहती है, किन्तु जगद्रूप में आकर विलीन हो जाती है, इसी प्रकार सूर्य जब अपनी उषा को आगे करता है-फैलाता है, रात्रिरूप जाया उसके उदय होने पर विलीन हो जाती है ॥१॥
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