ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 174/ मन्त्र 1
ऋषिः - अभीवर्तः
देवता - राज्ञःस्तुतिः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
अ॒भी॒व॒र्तेन॑ ह॒विषा॒ येनेन्द्रो॑ अभिवावृ॒ते । तेना॒स्मान्ब्र॑ह्मणस्पते॒ऽभि रा॒ष्ट्राय॑ वर्तय ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि॒ऽव॒र्तेन॑ । ह॒विषा॑ । येन॑ । इन्द्रः॑ । अ॒भि॒ऽव॒वृ॒ते । तेन॑ । अ॒स्मान् । ब्र॒ह्म॒णः॒ । प॒ते॒ । अ॒भि । रा॒ष्ट्राय॑ । व॒र्त॒य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभीवर्तेन हविषा येनेन्द्रो अभिवावृते । तेनास्मान्ब्रह्मणस्पतेऽभि राष्ट्राय वर्तय ॥
स्वर रहित पद पाठअभिऽवर्तेन । हविषा । येन । इन्द्रः । अभिऽववृते । तेन । अस्मान् । ब्रह्मणः । पते । अभि । राष्ट्राय । वर्तय ॥ १०.१७४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 174; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में शत्रुनाशार्थ विषययुक्तगन्धकधूमास्त्र प्रयोग करना चाहिए, अपनी प्रजाओं में विरोधी जनों को दण्ड दे, प्रजा के प्रमुख जनों का सहयोग प्राप्त करे, इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ -
(ब्रह्मणस्पते) हे पुरोहित ! (येन-अभीवर्तेन हविषा) जिस शत्रु के प्रति आक्रमण साधन धुँआ देनेवाले विषमिश्रित गन्धक योग से (इन्द्रः) राजा (अभिवावृते) इधर-उधर से समृद्धि को प्राप्त करता है तथा आगे प्रगति करता है (तेन) उसके द्वारा (राष्ट्राय) राष्ट्रहित के लिए (अस्मान्) हमें (अभि वर्तय) समृद्ध कर ॥१॥
भावार्थ - पुरोहित को चाहिये कि राजा शत्रु पर आक्रमण कर सके और प्रगति कर सके, उसे गुप्त प्रयोग धूम देनेवाला बताना चाहिये, जो अवसर पर काम आ सके ॥१॥
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