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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 176 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 176/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सूनुरार्भवः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒यमु॒ ष्य प्र दे॑व॒युर्होता॑ य॒ज्ञाय॑ नीयते । रथो॒ न योर॒भीवृ॑तो॒ घृणी॑वाञ्चेतति॒ त्मना॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । ऊँ॒ इति॑ । स्यः । प्र । दे॒व॒ऽयुः । होता॑ । य॒ज्ञाय॑ । नी॒य॒ते॒ । रथः॑ । न । योः । अ॒भिऽवृ॑तः । घृणि॑ऽवान् । चे॒त॒ति॒ । त्मना॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमु ष्य प्र देवयुर्होता यज्ञाय नीयते । रथो न योरभीवृतो घृणीवाञ्चेतति त्मना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । ऊँ इति । स्यः । प्र । देवऽयुः । होता । यज्ञाय । नीयते । रथः । न । योः । अभिऽवृतः । घृणिऽवान् । चेतति । त्मना ॥ १०.१७६.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 176; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 34; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (अयम्-उ स्यः) यही वह (देवयुः-होता) हमारे लिए दिव्य भोगों की कामना करनेवाला-सबको देनेवाला परमात्मा या दिव्य रश्मियों को मिलानेवाला या प्राप्त करनेवाला सूर्य (यज्ञाय प्र-नीयते) समागम के लिए हृदय में धारा जाता है या यथासमय सेवन किया जाता है (रथः-न) जैसे रमणीय आश्रय करने योग्य गुरु (योः-अभीवृतः) जो मिश्रण चाहता है, वह शिष्यों के द्वारा आवृत होता है, ऐसे (घृणिवान्) दीप्तिमान् परमात्मा (त्मना चेतति) स्वरूप से सेवन करते हुए को चेताता है ॥३॥

    भावार्थ - परमात्मा मनुष्य के लिए दिव्य भोगों की कामना करता है, वह हृदय में साक्षात् होता है, अपने तेजस्वी स्वरूप से चेताता भी है, ऐसे ही सूर्य अपनी किरणों से संगत करता है और प्रकाश प्रदान करके चेताता है ॥३॥

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