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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
    ऋषिः - त्रितः देवता - अग्निः छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पि॒प्री॒हि दे॒वाँ उ॑श॒तो य॑विष्ठ वि॒द्वाँ ऋ॒तूँॠ॑तुपते यजे॒ह । ये दैव्या॑ ऋ॒त्विज॒स्तेभि॑रग्ने॒ त्वं होतॄ॑णाम॒स्याय॑जिष्ठः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पि॒प्री॒हि । दे॒वान् । उ॒श॒तः । य॒वि॒ष्ठ॒ । वि॒द्वान् । ऋ॒तून् । ऋ॒तु॒ऽप॒ते॒ । य॒ज॒ । इ॒ह । ये । दैव्याः॑ । ऋ॒त्विजः॑ । तेभिः॑ । अ॒ग्ने॒ । त्वम् । होतॄ॑णाम् । अ॒सि॒ । आऽय॑जिष्ठः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पिप्रीहि देवाँ उशतो यविष्ठ विद्वाँ ऋतूँॠतुपते यजेह । ये दैव्या ऋत्विजस्तेभिरग्ने त्वं होतॄणामस्यायजिष्ठः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पिप्रीहि । देवान् । उशतः । यविष्ठ । विद्वान् । ऋतून् । ऋतुऽपते । यज । इह । ये । दैव्याः । ऋत्विजः । तेभिः । अग्ने । त्वम् । होतॄणाम् । असि । आऽयजिष्ठः ॥ १०.२.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (यविष्ठ) हे तीनों लोकों के साथ अत्यन्त संयुक्त होनेवाले (उशतः-देवान्) तुझे चाहनेवाले ज्योतिर्विद्या-ज्ञाता विद्वानों को (पिप्रीहि) अपने विज्ञान से प्रसन्न कर-सन्तुष्ट कर (ऋतुपते) हे ऋतुओं के स्वामी या पालक ! (विद्वान्) उन्हें जनाने के हेतु (इह) इस संसार में (ऋतून् यज) वसन्त आदि ऋतुओं य कालों-कालविभागों-वर्ष, मास, दिन, रात्रि, प्रहर आदि को सङ्गत कर (ये दैव्याः-ऋत्विजः) जो मनुष्यों के नहीं किन्तु देवों-आकाशीय देवों के ऋत्विक् मन्त्र-मननीय वचन, विचार या दिशाएँ हैं (तेभिः) उनके द्वारा (अग्ने त्वम्) हे सूर्य ! तू (होतॄणाम्-आयजिष्ठः) उन ज्ञानग्राहक विद्वानों को सब ओर से अत्यन्त ज्ञानग्रहण करानेवाला है॥१॥

    भावार्थ - ज्योतिषी विद्वानों के लिये सूर्य एक ज्ञान ग्रहण कराने का साधन है। ऋतु या कालविभाग सूर्य से ही होते हैं तथा दिशाओं में वर्त्तमान ग्रह, तारे आदि का ज्ञान भी सूर्य से ही मिलता है। विद्यासूर्य विद्वान् के द्वारा दिव्य ज्ञानों की प्राप्ति होती है। वह सुखद समय का निर्माण करता है, जीवनयात्रा की दिशाओं को दिखाता है॥१॥

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