ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 22/ मन्त्र 2
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
इ॒ह श्रु॒त इन्द्रो॑ अ॒स्मे अ॒द्य स्तवे॑ व॒ज्र्यृची॑षमः । मि॒त्रो न यो जने॒ष्वा यश॑श्च॒क्रे असा॒म्या ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । श्रु॒तः । इन्द्रः॑ । अ॒स्मे इति॑ । अ॒द्य । स्तवे॑ । व॒ज्री । ऋची॑षमः । मि॒त्रः । न । यः । जने॑षु । आ । यशः॑ । च॒क्रे । असा॑मि । आ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इह श्रुत इन्द्रो अस्मे अद्य स्तवे वज्र्यृचीषमः । मित्रो न यो जनेष्वा यशश्चक्रे असाम्या ॥
स्वर रहित पद पाठइह । श्रुतः । इन्द्रः । अस्मे इति । अद्य । स्तवे । वज्री । ऋचीषमः । मित्रः । न । यः । जनेषु । आ । यशः । चक्रे । असामि । आ ॥ १०.२२.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(यः इन्द्रः) जो ऐश्वर्यवान् परमात्मा (जनेषु मित्रः-न) उपासक जनों में मित्र-स्नेही के समान (असामि यशः-आ चक्रे) अनु-समाप्त-अर्थात् परिपूर्ण यश और अन्न तथा धन को भलीभाँति प्राप्त कराता है (इह) यहाँ जनसमाज में (श्रुतः) प्रसिद्ध (वज्री) ओजस्वी (ऋचीषमः) मन्त्रों का दर्शानेवाला अतएव स्तुति करनेवाले ऋषियों के लिए यश प्रदान करता है अथवा स्तुति करनेवालों का मान करता है, उसको उत्कर्ष की ओर ले जाता है, अन्न का दान करता है या स्तुति के समान स्तुति के अनुरूप हुआ उसी के अनुरूप फल प्रदान करता है। वह धन देनेवाला भी है, ऐसा वह परमात्मा (अद्य-अस्मे स्तवे) इस काल में हम उपासकों के द्वारा स्तुत किया जाता है ॥२॥
भावार्थ - परमात्मा मनुष्यों में मित्र के समान पूर्णरूप से यश अन्न और धन प्राप्त कराता है, मन्त्रों का परिज्ञान कराता है, स्तोताओं का मान करता है और स्तुति के अनुरूप फल देता है। ऐसा वह परमात्मा हमारे लिए उपासनीय है ॥२॥
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