ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
इ॒नो रा॑जन्नर॒तिः समि॑द्धो॒ रौद्रो॒ दक्षा॑य सुषु॒माँ अ॑दर्शि । चि॒किद्वि भा॑ति भा॒सा बृ॑ह॒तासि॑क्नीमेति॒ रुश॑तीम॒पाज॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒नः । रा॒ज॒न् । अ॒र॒तिः । सम्ऽइ॑द्धः । रौद्रः॑ । दक्षा॑य । सु॒सु॒ऽमान् । अ॒द॒र्शि॒ । चि॒कित् । वि । भा॒ति॒ । बृ॒ह॒ता । असि॑क्नीम् । ए॒ति॒ । रुश॑तीम् । अ॒प॒ऽअज॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इनो राजन्नरतिः समिद्धो रौद्रो दक्षाय सुषुमाँ अदर्शि । चिकिद्वि भाति भासा बृहतासिक्नीमेति रुशतीमपाजन् ॥
स्वर रहित पद पाठइनः । राजन् । अरतिः । सम्ऽइद्धः । रौद्रः । दक्षाय । सुसुऽमान् । अदर्शि । चिकित् । वि । भाति । बृहता । असिक्नीम् । एति । रुशतीम् । अपऽअजन् ॥ १०.३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
पदार्थ -
(राजन्) अपने प्रकाश से प्रकाशमान सूर्य (इनः) तीनों लोकों का स्वामी जिस कारण (अरतिः) एक स्थान पर ही रमणकर्ता प्रभावकारी नहीं किन्तु तीनों लोकों में प्रभावकारी है, तिस से (रौद्रः) रुद्राणी तेजस्विनी विद्युत् शक्तियों से सम्पत्र (सुषुमान्) सुगमता से प्राणियों को और ओषधियों को उत्पत्तिशक्ति प्रेरणशक्ति देनेवाला (दक्षाय) संसार को बल देने के लिये (अदर्शि) दृष्ट होता है, साक्षात् देखा जाता है-सम्यक् दिखलाई पड़ता है, (चिकित्-बृहता भासा विभाति) चेताने-जगानेवाला वह सूर्य जिस कारण महती दीप्ति द्वारा विशेष भासित होता है-प्रकाशित होता है-चमकता है, इसलिये (रुशतीम्-अपाजन्) अपनी शुभ्रदीप्ति को फेंकता हुआ (असिक्नीम्-एति) रात्रि को प्राप्त होता है, रात्रि के अत्यन्त में प्रातर्वेला लाता है, तब सब को चेताता है-जगा देता है, रात्रि से-अन्धेरे से मुक्त करा देता है ॥१॥
भावार्थ - महान् अग्नि सूर्य तीनों लोकों पर प्रकाशमान हुआ उनका स्वामी सा बना हुआ है। वह एक ही लोक पर रमण नहीं करता, अपितु सब लोकों पर प्रभावकारी है और वैद्युत शक्तियों से सम्पन्न वह संसार को बल देता है ! प्राणियों और ओषधियों को उत्पक्ति शक्ति और उभरने की प्रेरणा देनेवाला साक्षात् दृष्ट होता है-ज्योति से चमकता है। वही सबको चेताने-जगानेवाला है। अपनी ज्योति को फेंकता हुआ रात्रि का अन्त करता है-प्रातर्वेला बनाता है। ऐसे ही विद्यासूर्य विद्वान् सूर्यसमान प्रतापी राजा अपने विद्या से या अधिकार से तीनों लोकों का उपयोग करता है। ज्ञान धर्म का प्रकाश फैलाकर अविद्या रात्रि को एवं पापभावना को मिटाता है ॥१॥
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