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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 34/ मन्त्र 14
    ऋषिः - कवष ऐलूष अक्षो वा मौजवान् देवता - अक्षकितवनिन्दा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मि॒त्रं कृ॑णुध्वं॒ खलु॑ मृ॒ळता॑ नो॒ मा नो॑ घो॒रेण॑ चरता॒भि धृ॒ष्णु । नि वो॒ नु म॒न्युर्वि॑शता॒मरा॑तिर॒न्यो ब॑भ्रू॒णां प्रसि॑तौ॒ न्व॑स्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मि॒त्रम् । कृ॒णु॒ध्व॒म् । खलु॑ । मृ॒ळत॑ । नः॒ । मा । नः॒ । घो॒रेण॑ । च॒र॒त॒ । अ॒भि । धृ॒ष्णु । नि । वः॒ । नु । म॒न्युः । वि॒श॒ता॒म् । अरा॑तिः । अ॒न्यः । ब॒भ्रू॒णाम् । प्रऽसि॑तौ । नु । अ॒स्तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मित्रं कृणुध्वं खलु मृळता नो मा नो घोरेण चरताभि धृष्णु । नि वो नु मन्युर्विशतामरातिरन्यो बभ्रूणां प्रसितौ न्वस्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मित्रम् । कृणुध्वम् । खलु । मृळत । नः । मा । नः । घोरेण । चरत । अभि । धृष्णु । नि । वः । नु । मन्युः । विशताम् । अरातिः । अन्यः । बभ्रूणाम् । प्रऽसितौ । नु । अस्तु ॥ १०.३४.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 34; मन्त्र » 14
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (मित्रं कृणुध्वं खलु) हे पुराने साथी जुआरियों ! तुम लोग मुझे मित्र बनाओ-द्यूतकार्य से मैं विरक्त हो गया, ऐसा जानकर मुझसे द्वेष न करो और मेरे ऊपर कृपा बनाये रखो (नः-मृळतः) हमें सुखी करो (नः-घोरेण धृष्णु मा चरत) हमारे प्रति भयंकर दबाव से न वर्त्तो (वः-मन्युः-नु विशताम्) तुम्हारा क्रोध तुम्हारे अन्दर ही विलीन रहे (अन्यः-अरातिः-बभ्रूणां प्रसितौ नु-अस्तु) अन्य कोई वञ्चक-चौर चमकते हुए पाशो के बन्धन में बद्ध होवे ॥१४॥

    भावार्थ - जुआ खेलनेवाला जुए खेलने के दोषदर्शन से विरक्त हो जाता है, तो उसके पुराने साथी द्वेष करने लगते हैं। वह उन्हें समझावे कि वे मित्रभाव करने लगें और कोई भी जुए के बन्धन में न फँसे ॥१४॥

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