ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 48/ मन्त्र 1
ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः
देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः
छन्दः - पादनिचृज्ज्गती
स्वरः - निषादः
अ॒हं भु॑वं॒ वसु॑नः पू॒र्व्यस्पति॑र॒हं धना॑नि॒ सं ज॑यामि॒ शश्व॑तः । मां ह॑वन्ते पि॒तरं॒ न ज॒न्तवो॒ऽहं दा॒शुषे॒ वि भ॑जामि॒ भोज॑नम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । भु॒व॒म् । वसु॑नः । पू॒र्व्यः । पतिः॑ । अ॒हम् । धना॑नि । सम् । ज॒जा॒मि॒ । शश्व॑तः । माम् । ह॒व॒न्ते॒ । पि॒तर॑म् । न । ज॒न्तवः॑ । अ॒हम् । दा॒शुषे॑ । वि । भ॒जा॒मि॒ । भोज॑नम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहं भुवं वसुनः पूर्व्यस्पतिरहं धनानि सं जयामि शश्वतः । मां हवन्ते पितरं न जन्तवोऽहं दाशुषे वि भजामि भोजनम् ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । भुवम् । वसुनः । पूर्व्यः । पतिः । अहम् । धनानि । सम् । जजामि । शश्वतः । माम् । हवन्ते । पितरम् । न । जन्तवः । अहम् । दाशुषे । वि । भजामि । भोजनम् ॥ १०.४८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 48; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में ‘इन्द्र शब्द से परमेश्वर ग्रहण किया है। वह परमात्मा योगियों, उपासकों, आस्तिकों को मोक्ष प्रदान करता है, उनके साथ मित्रता करता है, वेदज्ञान देता है, दुष्टकर्मों से बचाता है और नास्तिकों को दण्ड देता है, यह वर्णित है।
पदार्थ -
(अहम्) मैं परमात्मा (वसुनः) मुक्तों के नितान्त वासस्थान मोक्ष का (पूर्व्यः) पुरातन (पतिः) स्वामी हूँ (अहम्) मैं ही (धनानि) लौकिक धनों को (शश्वतः) बहुतेरे जीवगणों को उनकी तृप्ति के लिए (सं जयामि) संरक्षित रखता हूँ-स्वाधीन रखता हूँ (जन्तवः) मनुष्यादि प्राणी (मां पितरं न हवन्ते) मुझे पिता के समान आमन्त्रित करते हैं-पुकारते हैं (अहम्) मैं ही (दाशुषे) अन्यों को देनेवाले के लिए अथवा आत्मसमर्पण करनेवाले के लिए (भोजनम्) लोकसुखकर भोग तथा मोक्षानन्द को (वि भजामि) यथायोग्य विभक्त करके देता हूँ ॥१॥
भावार्थ - परमात्मा मुक्तात्माओं के मोक्षरूप वास का पुरातन स्वामी है, प्राणिगणों के लिए विविध धनों और जीवननिर्वाहक भोगों को यथायोग्य देता है ॥१॥
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