ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 60/ मन्त्र 2
ऋषिः - बन्ध्वादयो गौपायनाः
देवता - असमाती राजा
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
अस॑मातिं नि॒तोश॑नं त्वे॒षं नि॑य॒यिनं॒ रथ॑म् । भ॒जेर॑थस्य॒ सत्प॑तिम् ॥
स्वर सहित पद पाठअस॑मातिम् । नि॒ऽतोश॑नम् । त्वे॒षम् । नि॒ऽय॒यिन॑म् । रथ॑म् । भ॒जेऽर॑थस्य । सत्ऽप॑तिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
असमातिं नितोशनं त्वेषं निययिनं रथम् । भजेरथस्य सत्पतिम् ॥
स्वर रहित पद पाठअसमातिम् । निऽतोशनम् । त्वेषम् । निऽययिनम् । रथम् । भजेऽरथस्य । सत्ऽपतिम् ॥ १०.६०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 60; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(असमातिम्) ज्ञान और बल में इन असमानगति-किसी से भी समानता न रखनेवाले-अतुल्य (नितोशनम्) शत्रुओं के हिंसक (त्वेषम्) तेजस्वी (निययिनं रथम्) नियम से जानेवाले रथवान् को (भजे रथस्य सत्पतिम्) संग्राम में जिसका रथ है, ऐसे सच्चे रक्षक को प्राप्त होवें ॥२॥
भावार्थ - गुण व बल में सबसे बढ़े-चढ़े नेता, तेजस्वी, शत्रुहन्ता, सांग्रामिक रथ के सँभालनेवाले की शरण लेनी चाहिए, उसको राजा बनाना चाहिए ॥२॥
इस भाष्य को एडिट करें