ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 75/ मन्त्र 1
ऋषिः - सिन्धुक्षित्प्रैयमेधः
देवता - नद्यः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
प्र सु व॑ आपो महि॒मान॑मुत्त॒मं का॒रुर्वो॑चाति॒ सद॑ने वि॒वस्व॑तः । प्र स॒प्तस॑प्त त्रे॒धा हि च॑क्र॒मुः प्र सृत्व॑रीणा॒मति॒ सिन्धु॒रोज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सु । वः॒ । आ॒पः॒ । म॒हि॒मान॑म् । उ॒त्ऽत॒मम् । का॒रुः । वो॒चा॒ति॒ । सद॑ने । वि॒वस्व॑तः । प्र । स॒प्तऽस॑प्त । त्रे॒धा । हि । च॒क्र॒मुः । प्र । सृत्व॑रीणाम् । अति॑ । सिन्धुः॑ । ओज॑सा ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सु व आपो महिमानमुत्तमं कारुर्वोचाति सदने विवस्वतः । प्र सप्तसप्त त्रेधा हि चक्रमुः प्र सृत्वरीणामति सिन्धुरोजसा ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । सु । वः । आपः । महिमानम् । उत्ऽतमम् । कारुः । वोचाति । सदने । विवस्वतः । प्र । सप्तऽसप्त । त्रेधा । हि । चक्रमुः । प्र । सृत्वरीणाम् । अति । सिन्धुः । ओजसा ॥ १०.७५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 75; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में तीनों लोकों अप्तत्त्व, पृथिवी पर जलरूप में नदियाँ भिन्न-भिन्न रूपवाली उन से लाभ लेना आदि कहा है।
पदार्थ -
(आपः) हे आप्त व्याप्त प्रवाहो ! (वः) तुम्हारे (उत्तमं महिमानम्) उत्तम महत्त्व को (कारुः सु प्रवोचाति) स्तुतिकर्त्ता शिल्पी-सीमाओं का कर्त्ता प्रकृष्टरूप से कहता है (विवस्वतः सदने) विशिष्टता से राष्ट्र में विज्ञानस्थल में जो बसता है, ऐसे वैज्ञानिक राजा के राजभवन में या विज्ञानभवन में (सप्त सप्त त्रेधा हि प्रचक्रमुः) सात-सात करके तीनों स्थानों में अर्थात् एक-एक स्थान में सात-सात होकर बहते हैं (प्रसृत्वरीणाम्) उन व्याप्त धाराओं का (सिन्धुः) बहनेवाला (ओजसा-अति) अति वेग से बहता है, वह अप् तत्त्व पदार्थ द्युलोक में सात रङ्ग की सूर्य की किरणें हैं, अन्तरिक्ष में सातरङ्ग की विद्युत् की धाराएँ हैं और पृथिवी पर सात जलधाराएँ हैं ॥१॥
भावार्थ - अप्तत्त्व पदार्थ तीनों लोकों में सात-सात करके प्रवाहित होते हैं। द्युलोक में सूर्य की किरणें, अन्तरिक्ष में विद्युद्धाराएँ, पृथिवी पर जलप्रवाह, इनका जाननेवाला वैज्ञानिक शिल्पी राजा के राजभवन में या विज्ञानभवन में इनका प्रवचन करे, इनसे लाभ लेने के लिये ॥१॥
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