ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 98/ मन्त्र 4
ऋषिः - देवापिरार्ष्टिषेणः
देवता - देवाः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ नो॑ द्र॒प्सा मधु॑मन्तो विश॒न्त्विन्द्र॑ दे॒ह्यधि॑रथं स॒हस्र॑म् । नि षी॑द हो॒त्रमृ॑तु॒था य॑जस्व दे॒वान्दे॑वापे ह॒विषा॑ सपर्य ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । द्र॒प्साः । मधु॑ऽमन्तः । वि॒श॒न्तु॒ । इन्द्र॑ । दे॒हि । अधि॑ऽरथम् । स॒हस्र॑म् । नि । सी॒द॒ । हो॒त्रम् । ऋ॒तु॒ऽथा । य॒ज॒स्व॒ । दे॒वान् । दे॒व॒ऽआ॒पे॒ । ह॒विषा॑ । स॒प॒र्य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो द्रप्सा मधुमन्तो विशन्त्विन्द्र देह्यधिरथं सहस्रम् । नि षीद होत्रमृतुथा यजस्व देवान्देवापे हविषा सपर्य ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नः । द्रप्साः । मधुऽमन्तः । विशन्तु । इन्द्र । देहि । अधिऽरथम् । सहस्रम् । नि । सीद । होत्रम् । ऋतुऽथा । यजस्व । देवान् । देवऽआपे । हविषा । सपर्य ॥ १०.९८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 98; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
पदार्थ -
(देवापे-इन्द्र) हे देवों की प्राप्ति करनेवाले राजपुरोहित या विद्युत् अग्नि ! (नः) हमें (मधुमन्तः) मधुर (द्रप्साः) जलांशप्रवाह (आविशन्तु) प्राप्त होवें (अधिरथम्) गतिमय क्रमानुरूप (सहस्रम्) गोधनसहस्रसदृश सहस्रगौवोंवाले बहुमूल्य वृष्टिजल को (देहि) दे (होत्रं-नि सीद) होम के आसन पर विराजमान हो (देवान्) वृष्टि के निमित्त देवों को (ऋतुथा) ऋतुकर्म से-यथासमय (यजस्व) सङ्गत कर (हविषा) होम सामग्री से-हव्य पदार्थ से (सपर्य) सेवन कर ॥४॥
भावार्थ - देवों की प्राप्ति करनेवाला राजपुरोहित बहुमूल्य जलवृष्टि को होमयज्ञ द्वारा राष्ट्र में जल बरसाता है एवं आकाशीय विद्युत् मीठे जलप्रवाह को बहुमूल्य गोधन के समान होमयज्ञ करने से वर्षा द्वारा प्रवाहित करती है ॥४॥
इस भाष्य को एडिट करें