ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 128/ मन्त्र 1
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृदत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
अ॒यं जा॑यत॒ मनु॑षो॒ धरी॑मणि॒ होता॒ यजि॑ष्ठ उ॒शिजा॒मनु॑ व्र॒तम॒ग्निः स्वमनु॑ व्र॒तम्। वि॒श्वश्रु॑ष्टिः सखीय॒ते र॒यिरि॑व श्रवस्य॒ते। अद॑ब्धो॒ होता॒ नि ष॑ददि॒ळस्प॒दे परि॑वीत इ॒ळस्प॒दे ॥
स्वर सहित पद पाठअयम् । जा॒य॒त॒ । मनु॑षः॑ । धरी॑मणि । होता॑ । यजि॑ष्ठः । उ॒शिजा॑म् । अनु॑ । व्र॒तम् । अ॒ग्निः । स्वम् । अनु॑ । व्र॒तम् । वि॒श्वऽश्रु॑ष्टिः । स॒खि॒ऽय॒ते । र॒यिःऽइ॑व । श्र॒व॒स्य॒ते । अद॑ब्धः । होता॑ । नि । स॒द॒त् । इ॒ळः । प॒दे । परि॑ऽवीतः । इ॒ळः । प॒दे ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं जायत मनुषो धरीमणि होता यजिष्ठ उशिजामनु व्रतमग्निः स्वमनु व्रतम्। विश्वश्रुष्टिः सखीयते रयिरिव श्रवस्यते। अदब्धो होता नि षददिळस्पदे परिवीत इळस्पदे ॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। जायत। मनुषः। धरीमणि। होता। यजिष्ठः। उशिजाम्। अनु। व्रतम्। अग्निः। स्वम्। अनु। व्रतम्। विश्वऽश्रुष्टिः। सखिऽयते। रयिःऽइव। श्रवस्यते। अदब्धः। होता। नि। सदत्। इळः। पदे। परिऽवीतः। इळः। पदे ॥ १.१२८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 128; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
विषय - विद्वान्, आचार्य, गुरु, और राजा का वर्णन ।
भावार्थ -
( अयं ) यह ( मनुषः ) मननशील पुरुष ( होता ) सब विद्याओं वा धनों का ग्रहण करने और योग्यपात्रों में दान देने वाला आचार्य ( यजिष्ठः ) अति उत्तम रीति से सुसंगत एवं विद्या आदि दान करने में सबसे उत्तम दाता होकर ( उशिजाम् अनु ) विद्या की इच्छा करने वाले जिज्ञासु जनों के ( व्रतम् ) व्रतों, धर्मों के अनुकूल ( अग्निः ) अग्नि के समान तेजस्वी होकर ( स्वम् ) अपने ( व्रतम् ) कर्तव्यों को ( अनु ) यथावत् पालन करे। वह विद्वान् पुरुष ( विश्वश्रुष्टिः ) समस्त श्रवण योग्य उपदेशों का जानने हारा ( सखीयते ) विद्यार्थी को अपना सखा या मित्र बना लेना चाहता है । वह ( रयिः इव ) धन सम्पन्न पुरुष के समान ( श्रवस्यते ) यश की कामना करता है । ( अदब्धः ) सदा विघ्न, पीड़ा आदि रहित होकर वह ( होता ) ज्ञान प्रदान करने में कुशल पुरुष ( इळः पदे ) स्तुति योग्य वेदवाणी के ज्ञान और भूमि प्राप्त कराने के कार्य में प्रमाण योग्य पदपर ( नि सदत् ) विराजे और उसके समक्ष ( होता ) ज्ञान ग्रहण करने हारा विद्यार्थी और प्रजाजन ( परिवीतः ) अच्छी प्रकार सावधान, सुरक्षित एवं सब प्रकार उत्तम वस्त्र और यज्ञोपवीत आदि धारण कर, गुरुद्वारा उपनीत होकर ( इडः पदे ) वेदवाणी के ज्ञान करने के लिये ( नि सदत् ) नियम पूर्वक एवं विनय से समीप विराजे और इसी प्रकार ( मनुष्य ) मननशील पुरुष ( धरीमणि ) राष्ट्र के धारण करने के कार्य में प्रसिद्ध हो । ( उशिजाम् व्रतमनु अग्निः इव स्वव्रतम् अनु ) तेजस्वी पुरुषों के बीच वह अग्नि के समान अपने व्रत पालन कार्य में सावधान हो । ( विश्वश्रुष्टिः ) समस्त राज्य कार्यों का कर्त्ता, समस्त अन्न, धन आदि का स्वामी होकर ( रयिः ) ऐश्वर्यवान् के समान सब का मित्र, यशस्वी होना चाहे । वह अहिंसित निष्कण्टक होकर ( परिवीतः ) । सुरक्षित रहकर वृथ्वी के प्रात करने और सर्वपूज्य सब प्रकार से राजा के परम पद सिंहासन पर विराजे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १—८ परुच्छेप ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- निचृदत्यष्टिः । ३, ४, ६, ८ विराडत्यष्टिः । २ भुरिगष्टिः । ५, ७ निचृदष्टिः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥
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