ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 163/ मन्त्र 2
ऋषिः - विवृहा काश्यपः
देवता - यक्ष्मघ्नम्
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
ग्री॒वाभ्य॑स्त उ॒ष्णिहा॑भ्य॒: कीक॑साभ्यो अनू॒क्या॑त् । यक्ष्मं॑ दोष॒ण्य१॒॑मंसा॑भ्यां बा॒हुभ्यां॒ वि वृ॑हामि ते ॥
स्वर सहित पद पाठग्री॒वाभ्यः॑ । ते॒ । उ॒ष्णिहा॑भ्यः । कीक॑साभ्यः । अ॒नू॒क्या॑त् । यक्ष्म॑म् । दो॒ष॒ण्य॑म् । अंसा॑भ्याम् । बा॒हुऽभ्याम् । वि । वृ॒हा॒मि॒ । ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ग्रीवाभ्यस्त उष्णिहाभ्य: कीकसाभ्यो अनूक्यात् । यक्ष्मं दोषण्य१मंसाभ्यां बाहुभ्यां वि वृहामि ते ॥
स्वर रहित पद पाठग्रीवाभ्यः । ते । उष्णिहाभ्यः । कीकसाभ्यः । अनूक्यात् । यक्ष्मम् । दोषण्यम् । अंसाभ्याम् । बाहुऽभ्याम् । वि । वृहामि । ते ॥ १०.१६३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 163; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
विषय - रोगी के आंख, नाक, कान, ठुड्डी, मस्तिष्क, बाहु, धमनियों, और अस्थियों गुदा, आंतों, आदि पेट के भीतरी अंगों से और जांघों, पैरों, टांगों, एड़ियों, पंजों, नितम्बों से, मूत्र, मलादि द्वारों और अन्य अनेक जोड़ों से राजयक्ष्मादि नाश करने का उपदेश।
भावार्थ -
हे रोगी ! (ते दोषण्यं यक्ष्मं) तेरे बाहुओं में बैठे रोग को (ग्रीवाभ्यः) गर्दन की नाड़ियों से (उष्णिहाभ्यः) ऊपर की ओर जाने वाली, धमनियों से, (कीकसाभ्यः) हड्डियों से और (अनूक्यात्) संधि भाग से, (अंसाभ्यां बाहुभ्यां) कंधों और बाहुओं से (वि वृहामि) दूर करूं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिविंवृहा काश्यपः॥ देवता यक्ष्मध्नम्॥ छन्द:- १, ६ अनुष्टुप्। २-५ निचृदनुष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
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