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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 184/ मन्त्र 1
ऋषिः - त्वष्टा गर्भकर्त्ता विष्णुर्वा प्राजापत्यः
देवता - लिङ्गोत्ताः (गर्भार्थाशीः)
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
विष्णु॒र्योनिं॑ कल्पयतु॒ त्वष्टा॑ रू॒पाणि॑ पिंशतु । आ सि॑ञ्चतु प्र॒जाप॑तिर्धा॒ता गर्भं॑ दधातु ते ॥
स्वर सहित पद पाठविष्णुः॑ । योनि॑म् । क॒ल्प॒य॒तु॒ । त्वष्टा॑ । रू॒पाणि॑ । पिं॒श॒तु॒ । आ । सि॒ञ्च॒तु॒ । प्र॒जाऽप॑तिः । धा॒ता । गर्भ॑म् । द॒धा॒तु॒ । ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विष्णुर्योनिं कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिंशतु । आ सिञ्चतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते ॥
स्वर रहित पद पाठविष्णुः । योनिम् । कल्पयतु । त्वष्टा । रूपाणि । पिंशतु । आ । सिञ्चतु । प्रजाऽपतिः । धाता । गर्भम् । दधातु । ते ॥ १०.१८४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 184; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 42; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 42; मन्त्र » 1
विषय - विष्णु आदि लिङ्गोक्त देवता। पुत्रोत्पादक पुरुष के कर्त्तव्य।
भावार्थ -
(विष्णुः) हृदय में प्रवेश करने वाला पुरुष (योनिं कल्पयतु) उत्तम गृह बनावे। और (त्वष्टा) तेजस्वी वा शिल्पी पुरुष (रूपाणि) नाना रुचिकर पदार्थ (पिंशतु) बनावे। (प्रजापतिः) प्रजा का पालक (आ सिञ्चतु) वीर्य का आसेचन करे। (धाता) हे स्त्री ! तेरा धारण-पोषण करने वा गर्भ आधान करने वाला पुरुष ही (गर्भं दधातु) तेरे गर्भ का भरण-पोषण भी करे। हृदय में प्रेमी होकर, वा शरीर में प्रजारूप होकर प्रवेश करने वाला विष्णु, नाना रुचिकर पदार्थों का रचयिता त्वष्टा, प्रजा का पालक, प्रजापति, गर्भ का आधाता, और पोषक ये सब विशेषण पति के कर्तव्य को बतलाते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः स्वष्टा गर्भकतां विष्णुर्वा प्राजापत्यः॥ देवता—लिंगोक्ताः। गर्भार्थाशीः॥ छन्दः—१, २ अनुष्टुप्। ३ निचृदनुष्टुप्॥
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