ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
दि॒वस्परि॑ प्रथ॒मं ज॑ज्ञे अ॒ग्निर॒स्मद्द्वि॒तीयं॒ परि॑ जा॒तवे॑दाः । तृ॒तीय॑म॒प्सु नृ॒मणा॒ अज॑स्र॒मिन्धा॑न एनं जरते स्वा॒धीः ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वः । परि॑ । प्र॒थ॒मम् । ज॒ज्ञे॒ । अ॒ग्निः । अ॒स्मत् । द्वि॒तीय॑म् । परि॑ । जा॒तऽवे॑दाः । तृ॒तीय॑म् । अ॒प्ऽसु । नृ॒ऽमनाः॑ । अज॑स्रम् । इन्धा॑नः । ए॒न॒म् । ज॒र॒ते॒ । सु॒ऽआ॒धीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवस्परि प्रथमं जज्ञे अग्निरस्मद्द्वितीयं परि जातवेदाः । तृतीयमप्सु नृमणा अजस्रमिन्धान एनं जरते स्वाधीः ॥
स्वर रहित पद पाठदिवः । परि । प्रथमम् । जज्ञे । अग्निः । अस्मत् । द्वितीयम् । परि । जातऽवेदाः । तृतीयम् । अप्ऽसु । नृऽमनाः । अजस्रम् । इन्धानः । एनम् । जरते । सुऽआधीः ॥ १०.४५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 45; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
विषय - अग्नि। मुख्याग्नि सूर्य, अध्यात्म में प्राण। जाठर, और भौम ये तीन अग्नियें। उनसे दीर्घायु की प्राप्ति।
भावार्थ -
(प्रथमं) पहले (आग्नः) अग्नि (दिवः परि) आकाश में प्रकट हुआ, वह सूर्यरूप अग्नि ब्रह्माण्ड में सब से मुख्य है। उसी प्रकार मूर्धा भाग में मुख्य प्राण ही मुख्य अग्नि है। और (द्वितीयं) दूसरा (जात-वेदाः) सब पदार्थों के भीतर विद्यमान (अग्निः) अग्नि स्वरूप दूसरे नम्बर पर प्रकट होता, उसी प्रकार दूसरे नम्बर पर यह जाठर अग्नि है। जो प्रत्येक उत्पन्न प्राणी को प्राप्त होता है और (तृतीयम्) तीसरा, (नृ-मणाः) नयन, सञ्चालक वा प्रेरक शक्ति से पदार्थों को स्तब्ध करने में समर्थ वा (नृ-मणाः) मनुष्यों के बीच मनन, ज्ञानशक्ति देने वाला, (अप्सु) अन्तरिक्षों वा जलों में विद्युत् रूप होता है। (एनं अजस्रम् इन्धानः) इस अग्नि को कभी न नष्ट होने देता हुए, निरन्तर इसे प्रज्वलित रखता हुआ पुरुष (स्वाधीः सु-आधीः) सुखों को अपने में धारण करने वाला, स्वस्थ, सुखी और सुबुद्धि नीरोग होकर (जरते) वृद्धावस्था को प्राप्त होता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिर्वत्सप्रिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१—५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९-१२ विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
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