ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 82/ मन्त्र 1
ऋषिः - विश्वकर्मा भौवनः
देवता - विश्वकर्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
चक्षु॑षः पि॒ता मन॑सा॒ हि धीरो॑ घृ॒तमे॑ने अजन॒न्नन्न॑माने । य॒देदन्ता॒ अद॑दृहन्त॒ पूर्व॒ आदिद्द्यावा॑पृथि॒वी अ॑प्रथेताम् ॥
स्वर सहित पद पाठचक्षु॑षः । पि॒ता । मन॑सा । हि । धीरः॑ । घृ॒तम् । ए॒ने॒ । अ॒ज॒न॒त् । नम्न॑माने॒ इति॑ । य॒दा । इत् । अन्ताः॑ । अद॑दृहन्त । पूर्वे॑ । आत् । इत् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अ॒प्र॒थे॒ता॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
चक्षुषः पिता मनसा हि धीरो घृतमेने अजनन्नन्नमाने । यदेदन्ता अददृहन्त पूर्व आदिद्द्यावापृथिवी अप्रथेताम् ॥
स्वर रहित पद पाठचक्षुषः । पिता । मनसा । हि । धीरः । घृतम् । एने । अजनत् । नम्नमाने इति । यदा । इत् । अन्ताः । अददृहन्त । पूर्वे । आत् । इत् । द्यावापृथिवी इति । अप्रथेताम् ॥ १०.८२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 82; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
विषय - सब जगत् का कर्त्ता परमेश्वर। उसी की शक्ति से भूमि, आकाश स्थूल जगत् की स्थिति और वृद्धि। पृथिवी आदि का क्रमशः सर्जन।
भावार्थ -
(चक्षुः पिता) ज्ञान दर्शन करने वाले इन्द्रियगण, वा देह वा सूर्य आदि का पिता के समान उत्पादक (मनसा) मन, संकल्पात्मक जगत् धारक सामर्थ्य से ही (धीरः) समस्त जगत् को धारण करने वाला है। वह (घृतम्) सृष्टि के प्रारम्भ में महान् आकाश में तेजोमय हिरण्यगर्भ को और पार्थिव सर्ग के प्रारम्भ में पृथिवी पर के क्षरण, सेचन करने वाले तत्व जल को (अजनत्) उत्पन्न करता है। और अनन्तर (नम्नमाने एने) नमते हुए अर्थात् पूर्व परिणाम से उत्तर परिणाम में विकृति को प्राप्त होते हुए दोनों आकाश वा पृथिवी तेजोमय सूर्यादि लोक और पृथिवी दोनों को (अजनत्) बनाता है। दोनों के बनते हुए (यदा) जब उन दोनों के (अन्ताः अदद्दहन्त) पर्यन्त भाग, बाहर के सीमा के भाग द्दढ़ होते जाते हैं और (आत् इत्) अनन्तर, उत्तरोत्तर वे (पूर्व) पूर्व विद्यमान (द्यावा पृथिवी) आकाश और पृथिवी दोनों (अप्रथेताम्) विस्तृत होते जाते हैं। जिस प्रतप्त गैस के रूप में वा हिरण्यरूप में महान तेजोमय मण्डल था, ज्यों २ शनैः २ उसके भी प्रान्त भाग दृढ़ हुए त्यों २ प्रकृति के परमाणु रूप धनीभूत होकर आकाश को प्रकट करने लगे और उस हिरण्य गर्भ में से पृथक २ अनेक ब्रह्माण्ड, ब्रह्माण्डों में से अनेक सूर्य और सूर्यों में से धनीभूत पृथिवी आदि अनेक लोक निकले, फैलते हुए प्रकृति के परमाणु जो आकाश को भर रहे थे वे पुञ्जीभूत दृढ़ हो गया और खाली आकाश प्रकट होगया। सूर्य में भी अभी वही प्रान्त भागों का हढ़ीभाव हो रहा है, और इसी प्रकार पृथिवी में भी इसी विधि से दृढीभाव हुआ है, होते २ अग्निमय पिण्ड के दृढीभाव से भाप से जल के तुल्य द्रव पदार्थ जल तत्त्व और जल तत्व के दृढीभाव से स्थूल कठिन भूभाग प्रकट हुआ और होता जा रहा है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वकर्मा भौवन ऋषिः॥ विश्वकर्मा देवता॥ छन्द:- १, ५, ६ त्रिष्टुप्। २, ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप्। ७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्।
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