ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 31/ मन्त्र 7
ए॒ता वो॑ व॒श्म्युद्य॑ता यजत्रा॒ अत॑क्षन्ना॒यवो॒ नव्य॑से॒ सम्। श्र॒व॒स्यवो॒ वाजं॑ चका॒नाः सप्ति॒र्न रथ्यो॒ अह॑ धी॒तिम॑श्याः॥
स्वर सहित पद पाठए॒ता । वः॒ । व॒श्मि॒ । उ॒त्ऽय॑ता । य॒ज॒त्राः॒ । अत॑क्षन् । आ॒यवः॑ । नव्य॑से । सम् । श्र॒व॒स्यवः॑ । वाज॑म् । च॒का॒नाः । सप्तिः॑ । न । रथ्यः॑ । अह॑ । धी॒तिम् । अ॒श्याः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एता वो वश्म्युद्यता यजत्रा अतक्षन्नायवो नव्यसे सम्। श्रवस्यवो वाजं चकानाः सप्तिर्न रथ्यो अह धीतिमश्याः॥
स्वर रहित पद पाठएता। वः। वश्मि। उत्ऽयता। यजत्राः। अतक्षन्। आयवः। नव्यसे। सम्। श्रवस्यवः। वाजम्। चकानाः। सप्तिः। न। रथ्यः। अह। धीतिम्। अश्याः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 31; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 7
विषय - श्रेष्ठ, विद्वान् पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
जिस प्रकार ( यजत्राः ) परस्पर मिलकर एक संग काम करने वाले ( आयवः ) शिल्पी लोग ( नव्यसे ) स्तुतियोग्य स्वामी के लिये ( उद्-यता ) उत्तम कोटि के प्रयत्नसाध्य पदार्थ ( सम् अतक्षन् ) बनाते हैं। और वे उससे ( श्रवस्यवः ) धन, अन्न और यश की इच्छा करते और ( वाजं चकानाः ) ऐश्वर्य या बल अधिकार की कामना करते हैं । इसी प्रकार ( यजत्राः ) यज्ञ, उपासना और दान करने वाले ( आ यवः ) ज्ञानी लोग ( नव्यसे ) अतिस्तुत्य परमेश्वर के लिये ( उद्-यता ) उत्तम रूप से हृदय से उठे, भावपूर्ण स्तुति वचनों को ( सम् अतक्षन् ) प्रकट करते हैं । वे ( श्रवस्यवः ) ज्ञान की और ( वाजं ) ऐश्वर्य, और बल की ( चकानाः ) कामना करते हैं । हे विद्वान् पुरुषो ! मैं ( वः ) आप लोगों के ( एता ) इन उत्तम वचनों उपायनों को स्वामी के समान ( वश्मि ) नित्य चाहता और स्वीकार करता हूं । ( रथ्यः सप्तिः न ) रथ में लगा अश्व जिस प्रकार ( वाजम् ) बड़े वेग को प्राप्त करके मार्ग व्यापता है उसी प्रकार ( अह ) निश्चय से तुम जीव गण ( रथ्यः ) रमण योग्य देह में विद्यमान ( सप्तिः ) देह में देहान्तर जाने वाले होकर ( वाजम् ) नाना ऐश्वर्य और अन्नादि कर्म फल ( अश्याः ) भोग करो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः– १, २, ४ जगती । ३ विराट् जगती । ५ निचृज्जगती । ६ त्रिष्टुप् । ७ पङ्क्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
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