ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 3
स घा॒ यस्ते॒ ददा॑शति स॒मिधा॑ जा॒तवे॑दसे। सो अ॑ग्ने धत्ते सु॒वीर्यं॒ स पु॑ष्यति॥
स्वर सहित पद पाठसः । घ॒ । यः । ते॒ । ददा॑शति । स॒मिधा॑ । जा॒तऽवे॑दसे । सः । अ॒ग्ने॒ । ध॒त्ते॒ । सु॒ऽवीर्य॑म् । सः । पु॒ष्य॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स घा यस्ते ददाशति समिधा जातवेदसे। सो अग्ने धत्ते सुवीर्यं स पुष्यति॥
स्वर रहित पद पाठसः। घ। यः। ते। ददाशति। समिधा। जातऽवेदसे। सः। अग्ने। धत्ते। सुऽवीर्यम्। सः। पुष्यति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
विषय - परमेश्वर की भक्ति, उपासना।
भावार्थ -
हे (अग्ने) सबके प्रकाशक प्रभो ! (यः) जो पुरुष (जातवेदसे) उत्पन्न हुए प्रत्येक पदार्थ के भीतर विद्यमान (ते) तुझको (समिधा) अच्छी प्रकार हृदय प्रकाशित करने वाले विज्ञान द्वारा (ददाशति) अपना आत्मा सौंप देता है (सः) वह (सुवीर्यम्) उत्तम बल, पराक्रम को (धत्ते) धारण करता है और (सः) वही (पुष्यति) धनधान्य, गौ पशु, सुवर्णादि से पुष्ट और समृद्ध होता है। (२) राजा पक्ष में—(जातवेदसे) धनैश्वर्य के द्वारा प्रसिद्ध उसे जो करा दि देता है वह उत्तम बल रखता और समृद्ध होता है। (३) इसी प्रकार विद्वान् आचार्य के अधीन अपने को ‘समिधा’ सहित सौंपता है वह उत्तम ब्रह्मचर्यपालक होकर वीर्यवान् और विद्यादि से पुष्ट होता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, ५, ८ विराडुष्णिक्। ३ उष्णिक्। ४, ६, ७, ९ निचृदुष्णिक्। २ भुरिग् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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