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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 14/ मन्त्र 7
    ऋषिः - ऋषभो वैश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तुभ्यं॑ दक्ष कविक्रतो॒ यानी॒मा देव॒ मर्ता॑सो अध्व॒रे अक॑र्म। त्वं विश्व॑स्य सु॒रथ॑स्य बोधि॒ सर्वं॒ तद॑ग्ने अमृत स्वदे॒ह॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तुभ्य॑म् । द॒क्ष॒ । क॒वि॒क्र॒तो॒ इति॑ कविऽक्रतो । यानि॑ । इ॒मा । देव॑ । मर्ता॑सः । अ॒ध्व॒रे । अक॑र्म । त्वम् । विश्व॑स्य । सु॒ऽरथ॑स्य । बो॒धि॒ । सर्व॑म् । तत् । अ॒ग्ने॒ । अ॒मृ॒त॒ । स्व॒द॒ । इ॒ह ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तुभ्यं दक्ष कविक्रतो यानीमा देव मर्तासो अध्वरे अकर्म। त्वं विश्वस्य सुरथस्य बोधि सर्वं तदग्ने अमृत स्वदेह॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तुभ्यम्। दक्ष। कविक्रतो इति कविऽक्रतो। यानि। इमा। देव। मर्तासः। अध्वरे। अकर्म। त्वम्। विश्वस्य। सुऽरथस्य। बोधि। सर्वम्। तत्। अग्ने। अमृत। स्वद। इह॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 14; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 7

    भावार्थ -
    हे (दक्ष) बलवन् ! अतिचतुर ! विद्वन् ! हे (दक्ष) शत्रुओं को भस्म करने हारे अग्नि के समान तेजस्विन् ! प्रतापशालिन् ! हे (कविक्रतो) क्रान्तदर्शी, मतिमान् पुरुषों के ज्ञान के समान ज्ञानों और कर्मों वाले ! हे (देव) दानशील ! हे कमनीय ! हे प्रकाशक ! (अध्वरे) अहिंसारहित राष्ट्रपालन आदि यज्ञ रूप कार्य में (यानि) जो भी (इमा) ये नाना कार्य हम (अकर्म) करते हैं वे सब (तुभ्यम्) तेरे लिये ही करते हैं। तू (विश्वस्य सुरथस्य) समस्त उत्तम स्थादि अश्व पदाति अंगों से युक्त सैन्य का अपने को स्वामी जान। हे (अमृत) न मरने हारे ! दीर्घायु ! आयुष्मन् ! तू (इह) इस राष्ट्र में (तत् सर्वम्) वह समस्त ऐश्वर्य (स्वद) भोग कर। (२) ईश्वर और आत्मा के पक्षमें—हे देव प्रभो ! यज्ञ में हमारे सब कार्य तेरे ही निमित्त हैं। (सुरथस्य विश्वस्य) उत्तम रमण योग्य विश्व जगत् को जानता। तू (इह) इस जगत् में स्वयं अमृत, अविनाशी होकर सबको (स्वद) खा जाता है अर्थात् प्रलय काल में सब विश्व को कालाग्नि रूप में भस्म कर देता है। इति चतुर्दशो वर्गः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषभो वैश्वामित्र ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५ त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ६ पङ्किः॥ सप्तर्चं सूक्तम॥

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