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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गाथी कौशिकः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ग्निमु॒षस॑म॒श्विना॑ दधि॒क्रां व्यु॑ष्टिषु हवते॒ वह्नि॑रु॒क्थैः। सु॒ज्योति॑षो नः शृण्वन्तु दे॒वाः स॒जोष॑सो अध्व॒रं वा॑वशा॒नाः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । उ॒षस॑म् । अ॒श्विना॑ । द॒धि॒ऽक्राम् । विऽउ॑ष्टिषु । ह॒व॒ते॒ । वह्निः॑ । उ॒क्थैः । सु॒ऽज्योति॑षः । नः॒ । शृ॒ण्व॒न्तु॒ । दे॒वाः । स॒ऽजोष॑सः । अ॒ध्व॒रम् । वा॒व॒शा॒नाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निमुषसमश्विना दधिक्रां व्युष्टिषु हवते वह्निरुक्थैः। सुज्योतिषो नः शृण्वन्तु देवाः सजोषसो अध्वरं वावशानाः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम्। उषसम्। अश्विना। दधिऽक्राम्। विऽउष्टिषु। हवते। वह्निः। उक्थैः। सुऽज्योतिषः। नः। शृण्वन्तु। देवाः। सऽजोषसः। अध्वरम्। वावशानाः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (वह्निः) विवाह करने वाला युवा पुरुष जिस प्रकार (अग्निम्) आवसथ्य यज्ञाग्नि को और (दधिक्रां उषसम्) धारण पोषण करने वाले को प्राप्त होने वाली, कामनाशील, मनोरमा स्त्री को या (दधिक्रां) पोषक पिता से भी बढ़ जाने वाले पुत्र को और (अश्विना) सूर्य पृथिवी या सूर्य चन्द्र के समान माता पिता दोनों को (व्युष्टिषु) विशेष उषा कालों में या विशेष प्रेम के अवसरों में (उक्थैः) उत्तम वचनों से (हवते) बुलाता है उसी प्रकार (वह्निः) राज्य कार्य भार को अपने ऊपर धारण करने वाला पुरुष (अग्निम्) अग्रणी नायक को (उषसम्) प्रभात बेला के समान अपने पीछे तेजस्वी सूर्यवत् सेनापति को धारण करने वाली (दधिक्राम्) अपने धारक पोषक को प्राप्त (उषसम्) शत्रु को सन्तप्त और दुग्घ करने वाली सेना को, या (दधिक्राम्) पीठ पर सवार को धारण करके वेग से जाने वाले अश्व को और (अश्विना) दो अश्ववान् सेनापति या राजा प्रजा वर्ग या राजा रानी दोनों को (व्युष्टिषु) दुष्ट शत्रुओं को विविध प्रकार से ताप या पीड़ा देने के संग्राम आदि कार्यो में (उक्थैः) उत्तम प्रशंसनीय वचनों, पदों और कर्मों से (हवते) अपनाता और रखता है। (सुज्योतिषः) उत्तम चमकते आभूषणों, तेजों और ज्ञानों को धारण करने वाले (देवाः) विद्वान् और वीर लोग (सजोषसः) परस्पर समान प्रीतिभाव से युक्त होकर (नः अध्वरं) शत्रु तथा दुष्टों द्वारा होने वाले हमारे विनाश को न (वावशानाः) चाहते हुए (नः शृण्वन्तु) हमारे निवेदन तथा व्यवहारों को सुना करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गाथी ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवता॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप्। २ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक त्रिष्टुप्। ४, ५ त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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