ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 24/ मन्त्र 5
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
अग्ने॒ दा दा॒शुषे॑ र॒यिं वी॒रव॑न्तं॒ परी॑णसम्। शि॒शी॒हि नः॑ सूनु॒मतः॑॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । दाः । दा॒शुषे॑ । र॒यिम् । वी॒रऽव॑न्तम् । परी॑णसम् । शि॒शी॒हि । नः॒ । सू॒नु॒ऽमतः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने दा दाशुषे रयिं वीरवन्तं परीणसम्। शिशीहि नः सूनुमतः॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। दाः। दाशुषे। रयिम्। वीरऽवन्तम्। परीणसम्। शिशीहि। नः। सूनुऽमतः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 24; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
विषय - पक्षान्तर में आत्मा, परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ -
हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! हे प्रतापशालिन् ! तू (दाशुषे) दानशील, सबको सुखों के देने वाले वा आत्म-समर्पक वा करादि देने वाले प्रजाजन को (वीरवन्तं) उत्तम पुत्रों और बलवान् वीर पुरुषों से युक्त (परीणसं) बहुत प्रकार का (रयिं) ऐश्वर्य (दाः) प्रदान कर। और (सूनुमतः) पुत्र पौत्रों से युक्त वा उत्तम शासक से युक्त (नः) हमें (शिशीहि) शासन कर, और शस्त्र के समान अति तीक्ष्ण कर, बलबानू और तीक्ष्ण बुद्धियुक्त असह्य तेजस्वी बना और उन्नति-पथ पर तीव्र वेग से ले चल। इति चतुर्विंशो वर्गः॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ निचृत् त्रिष्टुप्। २ निचृद्गायत्री। ३, ४, ५ गायत्री॥
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