ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 27/ मन्त्र 2
ईळे॑ अ॒ग्निं वि॑प॒श्चितं॑ गि॒रा य॒ज्ञस्य॒ साध॑नम्। श्रु॒ष्टी॒वानं॑ धि॒तावा॑नम्॥
स्वर सहित पद पाठईळे॑ । अ॒ग्निम् । वि॒पः॒ऽचित॑म् । गि॒रा । य॒ज्ञस्य॑ । साध॑नम् । श्रु॒ष्टी॒ऽवान॑म् । धि॒तऽवा॑नम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ईळे अग्निं विपश्चितं गिरा यज्ञस्य साधनम्। श्रुष्टीवानं धितावानम्॥
स्वर रहित पद पाठईळे। अग्निम्। विपःऽचितम्। गिरा। यज्ञस्य। साधनम्। श्रुष्टीऽवानम्। धितऽवानम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 27; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
विषय - प्रभु और गुरु की उपासना।
भावार्थ -
(गिरा) वाणी द्वारा ही (यज्ञस्य) ज्ञान प्रदान करने और मैत्री और सत्संग के (साधनम्) करने वाले (विपश्चितम्) उत्तम कर्मों को स्वयं जानने और अन्यों को जनाने वाले विद्वान् (श्रुष्टीवानम्) शीघ्र उद्देश्य तक पहुंचने और पहुंचाने में समर्थ व गुरूपदेशों के श्रवण करने वाले श्रुतिविज्ञ, बहुश्रुत (धितावानम्) सेवन और धारने योग्य ज्ञानादि पदार्थों को धारण करने वाले (अग्निम्) सर्वाग्रगण्य विद्वान् पुरुष का मैं (इळे) स्तुति करूं, उसको हृदय से चाहूं। (२) परमेश्वर वेदवाणी से यज्ञ अर्थात् ज्ञान देने वाला सब ऐश्वर्यो का धारक, सर्वशक्तिमान् है, उसकी मैं स्तुति करूं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ १ ऋतवोऽग्निर्वा । २–१५ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ७, १०, १४, १५ निचृद्गायत्री। २, ३, ६, ११, १२ गायत्री। ४, ५, १३ विराड् गायत्री। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
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