ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
अग्ने॑ जु॒षस्व॑ नो ह॒विः पु॑रो॒ळाशं॑ जातवेदः। प्रा॒तः॒सा॒वे धि॑यावसो॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । जु॒षस्व॑ । नः॒ । ह॒विः । पु॒रो॒ळाश॑म् । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । प्रा॒तः॒ऽसा॒वे । धि॒या॒व॒सो॒ इति॑ धियाऽवसो ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने जुषस्व नो हविः पुरोळाशं जातवेदः। प्रातःसावे धियावसो॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। जुषस्व। नः। हविः। पुरोळाशम्। जातऽवेदः। प्रातःऽसावे। धियावसो इति धियाऽवसो॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 28; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
विषय - अग्नि शिष्य का कर्त्तव्य वर्णन।
भावार्थ -
हे (अग्ने) विद्वन् ! हे (जातवेदः) उत्तम विज्ञान को प्राप्त करने हारे ! हे (धियावसो) ज्ञान और उत्तम कर्म या व्रताचरण का पालन करते हुए, अपने अधीन शिष्यों को बसाने वाले आचार्य एवं आचार्य के अधीन स्वयं बसने वाले शिष्य ! (प्रातःसावे) प्रातःकल यज्ञकाल में जिस प्रकार (नः पुरोडाशं हविः) हमारे पुरोडाश को अग्नि अग्निहोत्र काल में लेता है उसी प्रकार तू भी (प्रातःसावे) प्रभात के तुल्य जीवन के प्रथम काल, ब्रह्मचर्य आश्रम में (नः) हमारे (हविः) ग्रहण करने योग्य अन्न के समान ही उपदेशयोग्य (पुरोडाशम्) आगे सन्मुस्त्र बैठे शिष्य को देने योग्य ज्ञान को (जुषस्व) प्रेम से ग्रहण कर अन्यों को ग्रहण करा। (२) कर्म और बुद्धि से वसु धनैश्वर्य का दाता, गृहीता वा कर्मानुसार, प्रज्ञानुसार धन देने वाला स्वामी ‘धियावसु’ है। वह आदरपूर्वक दिये गये अन्न, कर आदि को स्वीकार करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ गायत्री। २, ६ निचृद्गायत्री। ३ स्वराडुष्णिक्। ४ त्रिष्टुप्। ५ निचृज्जगती॥ षडृचं सूक्तम्॥
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