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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 58/ मन्त्र 8
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अश्वि॑ना॒ परि॑ वा॒मिषः॑ पुरू॒चीरी॒युर्गी॒र्भिर्यत॑माना॒ अमृ॑ध्राः। रथो॑ ह वामृत॒जा अद्रि॑जूतः॒ परि॒ द्यावा॑पृथि॒वी या॑ति स॒द्यः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्वि॑ना । परि॑ । वा॒म् । इषः॑ । पु॒रू॒चीः । ई॒युः । गीः॒ऽभिः । यत॑मानाः । अमृ॑ध्राः । रथः॑ । ह॒ । वा॒म् । ऋ॒त॒ऽजाः । अद्रि॑ऽजूतः । परि॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । या॒ति॒ । स॒द्यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्विना परि वामिषः पुरूचीरीयुर्गीर्भिर्यतमाना अमृध्राः। रथो ह वामृतजा अद्रिजूतः परि द्यावापृथिवी याति सद्यः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्विना। परि। वाम्। इषः। पुरूचीः। ईयुः। गीःऽभिः। यतमानाः। अमृध्राः। रथः। ह। वाम्। ऋतऽजाः। अद्रिऽजूतः। परि। द्यावापृथिवी इति। याति। सद्यः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 58; मन्त्र » 8
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे (अश्विना) अश्व अर्थात् राष्ट्र पालन या अश्वमेध के करने वाले महानुभाव स्त्री पुरुषो ! (वाम्) तुम दोनों की (इषः) उत्तम कामनाएं और सेनाएं (पुरूचीः) बहुत से पदार्थों और देशों तक पहुंचाने वाली और (गीर्भिः) उत्तम वाणियों द्वारा (यतमानाः) कर्म में प्रवृत्त हुई (अमृध्राः) कभी तिरस्कृत न होकर (परि ईदुः) सब तरफ़ जावें। और (वाम्) तुम दोनों का (ऋतजाः) वेग से उत्पन्न (अद्रिजूतः) मेघ में या पर्वतादि विषम स्थलों में भी वेग से जाने वाला (रथः) रथ विमान अग्नियान आदि और (ऋतजाः) सत्य से परिष्कृत (अद्रि-जूतः) अविदीर्ण, स्थिर, अविनाशी परमेश्वर की तरफ़ वेग से जाने वाला (वां रथः) तुम दोनों रसस्वरूप आत्मा (सद्यः) शीघ्र ही (द्यावा- पृथिवी परि याति) आकाश और भूमि में भी चले वा प्राण अपान दोनों से परे हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ८, ९ त्रिष्टुप्। २, ३, ४, ५, ७ निचृत्त्रिष्टुप्। ६ भुरिक् पंक्तिः॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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