ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
अ॒भ्य॑व॒स्थाः प्र जा॑यन्ते॒ प्र व॒व्रेर्व॒व्रिश्चि॑केत। उ॒पस्थे॑ मा॒तुर्वि च॑ष्टे ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । अ॒व॒ऽस्थाः । प्र । जा॒य॒न्ते॒ । प्र । व॒व्रेः । व॒व्रिः । चि॒के॒त॒ । उ॒पऽस्थे॑ । मा॒तुः । वि । च॒ष्टे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभ्यवस्थाः प्र जायन्ते प्र वव्रेर्वव्रिश्चिकेत। उपस्थे मातुर्वि चष्टे ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअभि। अवऽस्थाः। प्र। जायन्ते। प्र। वव्रेः। वव्रिः। चिकेत। उपऽस्थे। मातुः। वि। चष्टे ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
विषय - जीव बालकवत् अग्नि की उत्पत्ति ।
भावार्थ -
भा०—( वव्रे: ) रूपवान् देह की ( अवस्थाः ) ज्यों २ अवस्थाएं ( अभि प्र जायन्ते ) उत्तरोत्तर आती जाती हैं त्यों २ ( वत्रिः ) देहवान् पुरुष वा गुरुरूप से स्वीकार करने वाला शिष्य ( वव्रे: ) शिष्य को अंगीकार करने वाले गुरुजन से ( प्र चिकेत ) उत्तम २ ज्ञान प्राप्त करता जाय । वह ( मातुः उपस्थे ) माता की गोद में बालक के समान उत्तरोत्तर ज्ञानदाता गुरु के समीप ही रहकर (वि चष्टे ) विविध विद्याओं का दर्शन और पठन, कथोपकथन, अभ्यास आदि करे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वव्रिरात्रेय ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः -१ गायत्री । २ निचृद्-गायत्री । ३ अनुष्टुप् । ४ भुरिगुष्णिक् । ५ निचृत्पंक्तिः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
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