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ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
ऋषिः - विश्वसामा आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
प्र वि॑श्वसामन्नत्रि॒वदर्चा॑ पाव॒कशो॑चिषे। यो अ॑ध्व॒रेष्वीड्यो॒ होता॑ म॒न्द्रत॑मो वि॒शि ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वि॒श्व॒ऽसा॒म॒न् । अ॒त्रि॒ऽवत् । अर्च॑ । पा॒व॒कऽशो॑चिषे । यः । अ॒ध्व॒रेषु॑ । ईड्यः॑ । होता॑ । म॒न्द्रऽत॑मः । वि॒शि ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र विश्वसामन्नत्रिवदर्चा पावकशोचिषे। यो अध्वरेष्वीड्यो होता मन्द्रतमो विशि ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्र। विश्वऽसामन्। अत्रिऽवत्। अर्च। पावकऽशोचिषे। यः। अध्वरेषु। ईड्यः। होता। मन्द्रऽतमः। विशि ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
विषय - अग्रणी पुरुष का आदर सत्कार ।
भावार्थ -
भा०-हे (विश्वसामन् ) समस्त सामों, गायनों के जानने वाले, हे समस्त पुरुषों द्वारा किये साम अर्थात् प्रार्थना-वचनों के स्वीकार और सब के प्रति 'साम' अर्थात् प्रिय मधुर वचनों का प्रयोग करनेवाले विद्वन् ! (यः) जो (अध्वरेषु) हिंसा प्रजापीड़नादि से रहित प्रजापालन या शासन आदि कार्यों में ( ईड्यः ) स्तुति योग्य ( होता ) ज्ञान, ऐश्वर्य देने वाले ( विशि) प्रजा में ( मन्द्र-तमः ) अति आनन्दयुक्त एवं स्तुत्य है, उस (पावकशोचिषे ) पापनिवारक, सर्वशोधक, ज्ञान-ज्योति के स्वामी, अग्निवत् तेजस्वी पुरुष का तू ( अत्रिवत् ) विद्यमान व्यक्ति के तुल्य ही ( अर्च ) आदर सत्कार कर अर्थात् परोक्ष में भी उसका आदर करे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - आत्रेय ऋषिः । अग्निर्देवता । १ विराडनुष्टुप छन्दः २, ३ स्वराडुष्णिक् । ४ बृहती || चतुऋचं सूक्तम् ॥
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