ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 41/ मन्त्र 19
अ॒भि न॒ इळा॑ यू॒थस्य॑ मा॒ता स्मन्न॒दीभि॑रु॒र्वशी॑ वा गृणातु। उ॒र्वशी॑ वा बृहद्दि॒वा गृ॑णा॒नाभ्यू॑र्ण्वा॒ना प्र॑भृ॒थस्या॒योः ॥१९॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । नः॒ । इळा॑ । यू॒थस्य॑ । मा॒ता । स्मत् । न॒दीभिः॑ । उ॒र्वशी॑ । वा॒ । गृ॒णा॒तु॒ । उ॒र्वशी॑ । वा॒ । बृ॒ह॒त्ऽदि॒वा । गृ॒ण॒ना । अ॒भि॒ऽऊ॒र्ण्वा॒ना । प्र॒ऽभृ॒थस्य॑ । आ॒योः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि न इळा यूथस्य माता स्मन्नदीभिरुर्वशी वा गृणातु। उर्वशी वा बृहद्दिवा गृणानाभ्यूर्ण्वाना प्रभृथस्यायोः ॥१९॥
स्वर रहित पद पाठअभि। नः। इळा। यूथस्य। माता। स्मत्। नदीभिः। उर्वशी। वा। गृणातु। उर्वशी। वा। बृहत्ऽदिवा। गृणाना। अभिऽऊर्ण्वाना। प्रऽभृथस्य। आयोः ॥१९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 41; मन्त्र » 19
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
विषय - सर्वमाता वाणी ।
भावार्थ -
भा०- ( इडा ) यह भूमि और स्तुति योग्य, उपदेश वाणी (नः) हमारे (यूथस्य ) पशु आदि समूह और हमारे शिष्यादि समूह की ( माता स्मत् ) उत्तम ज्ञानदात्री, और उत्पादक माता के समान ही है । जिस प्रकार भूमि ( नदीभिः ) जल पूर्ण नदियों से (उर्वशी) बहुतों से कामना करने योग्य, सुन्दर होती है उसी प्रकार वाणी भी ( नदीभिः ) उपदेशप्रद वाणियों से ( उर्वशी ) बहुतों को वश करने वाली होती है । वह सदा (गृणातु ) शब्दकारिणी विद्युत् के तुल्य सदा उपदेश करे । ( वा ) उसी प्रकार ( बृहद्-दिवा ) अधिक ज्ञान प्रकाश से युक्त (उर्वशी) बहुत सी प्रजाओं को वश करने वाली ( गृणाना ) ज्ञान का उपदेश करती हुई माता के समान ही वाणी ( प्र-भृथस्य आयोः ) अच्छी प्रकार धारण किये हुए बालक के तुल्य शिष्य आदि को ( अभि ऊर्णुवाना ) वस्त्रादि से आच्छादित करती हुई ही ( गृणातु ) ज्ञान का उपदेश किया करती है इस प्रकार सावित्री वेदवाणी उत्तम माता के तुल्य ही है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः — १, २, ६, १५, १८ त्रिष्टुप् ॥ ४, १३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ७, ८, १४, १९ पंक्ति: । ५, ९, १०, ११, १२ भुरिक् पंक्तिः । २० याजुषी पंक्ति: । १६ जगती । १७ निचृज्जगती ॥ विशत्यृर्चं सूक्तम् ॥
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