ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 70/ मन्त्र 2
सिष॑क्ति॒ सा वां॑ सुम॒तिश्चनि॒ष्ठाता॑पि घ॒र्मो मनु॑षो दुरो॒णे । यो वां॑ समु॒द्रान्त्स॒रित॒: पिप॒र्त्येत॑ग्वा चि॒न्न सु॒युजा॑ युजा॒नः ॥
स्वर सहित पद पाठसिस॑क्ति । सा । वा॒म् । सु॒ऽम॒तिः । चनि॑ष्ठा । अता॑पि । घ॒र्मः । मनु॑षः । दु॒रो॒णे । यः । वा॒म् । स॒मु॒द्रान् । स॒रितः॑ । पिप॑र्ति । एत॑ऽग्वा । चि॒त् । न । सु॒ऽयुजा॑ । यु॒जा॒नः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सिषक्ति सा वां सुमतिश्चनिष्ठातापि घर्मो मनुषो दुरोणे । यो वां समुद्रान्त्सरित: पिपर्त्येतग्वा चिन्न सुयुजा युजानः ॥
स्वर रहित पद पाठसिसक्ति । सा । वाम् । सुऽमतिः । चनिष्ठा । अतापि । घर्मः । मनुषः । दुरोणे । यः । वाम् । समुद्रान् । सरितः । पिपर्ति । एतऽग्वा । चित् । न । सुऽयुजा । युजानः ॥ ७.७०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 70; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
विषय - परस्पर वरण करने वाले स्त्रीपुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
( दुरोणे धर्मः ) जहां तक कोई व्यक्ति बढ़ नहीं सकता ऐसे ऊंचे आकाश देश में तेजस्वी सूर्य के समान ( मनुषः ) मनुष्य ( दुरोणे ) घर में और राजा राज्य वा राष्ट्र में उच्च पद पर विराज कर (अतापि) खूब तप करे । इसी प्रकार ब्रह्मचारी ( धर्मः ) ज्ञान जल से सिक्त होकर, स्नातक होकर ( मनुषः दुरोणे ) मननशील आचार्य के गुरु-गृह में अग्नि के समान ( अतापि ) तप करे । राजा राष्ट्र में उच्चपद पर विराज कर सूर्यवत् तपे और दुष्टों को पीड़ित करे और उस समय ( वां ) तुम दोनों को ( चनिष्ठा ) अति श्रेष्ठ व गुरुवचनमय ( सुमतिः ) शुभमति (सिषक्ति) अवश्य प्राप्त हो । ( एतग्वा चित्) अश्व के समान एक गृहस्थ रथ में नियुक्त आप दोनों ( सुयुजा ) उत्तम सहयोगी जनों को ( युजानः ) जोड़ता हुआ, सत्कर्म में नियुक्त करता हुआ ( यः ) जो ( समुद्रान् सरितः ) समुद्रों को नदियों के समान, वा नदी समुद्रों को मेघ के समान (पिपर्त्ति ) पूर्ण करे वह उत्तम ज्ञानी गुरुजन सूर्यवत् तेजस्वी हो ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः— १, ३, ४, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ५, ७ विराट् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
इस भाष्य को एडिट करें