ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 85/ मन्त्र 4
स सु॒क्रतु॑ॠत॒चिद॑स्तु॒ होता॒ य आ॑दित्य॒ शव॑सा वां॒ नम॑स्वान् । आ॒व॒वर्त॒दव॑से वां ह॒विष्मा॒नस॒दित्स सु॑वि॒ताय॒ प्रय॑स्वान् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । सु॒ऽक्रतुः॑ । ऋ॒त॒ऽचित् । अ॒स्तु॒ । होता॑ । यः । आ॒दि॒त्या॒ । शव॑सा । वा॒म् । नम॑स्वान् । आ॒ऽव॒वर्त॑त् । अव॑से । वा॒म् । ह॒विष्मा॑न् । अस॑त् । इत् । सः । सु॒वि॒ताय॑ । प्रय॑स्वान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स सुक्रतुॠतचिदस्तु होता य आदित्य शवसा वां नमस्वान् । आववर्तदवसे वां हविष्मानसदित्स सुविताय प्रयस्वान् ॥
स्वर रहित पद पाठसः । सुऽक्रतुः । ऋतऽचित् । अस्तु । होता । यः । आदित्या । शवसा । वाम् । नमस्वान् । आऽववर्तत् । अवसे । वाम् । हविष्मान् । असत् । इत् । सः । सुविताय । प्रयस्वान् ॥ ७.८५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 85; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
विषय - इन्द्र, वरुण राजा के कर्तव्य ।
भावार्थ -
हे ( आदित्याः ) अदिति, अखण्ड राजनीति और भूमि के हितैषी जनो ! ( यः ) जो ( होता ) दानशील पुरुष ( शवसा ) अपने बल से तुम दोनों के प्रति ( नमस्वान् ) उत्तम अन्नादि सत्कार से युक्त होता है ( सः ) वह ( सु-क्रतुः ) शुभ कर्म करने हारा और ( ऋतचित् अस्तु ) सत्य ज्ञान और पुण्य ज्ञान को उपार्जन करने वाला हो। और जो ( अवसे ) अपनी रक्षा के लिये ( वां आववर्त्तत् ) तुम दोनों को प्राप्त होता है, वह ( प्रयस्वान् ) प्रयत्नशील होकर ( सुविताय इत् आत् ) सुख प्राप्त करने में समर्थ ( हविष्मान् ) उत्तम अन्नसम्पन्न हो। इसी प्रकार जो आहुतिदाता ज्ञान और बल से अन्नवान् होकर उत्तम यज्ञ का कर्त्ता और ( ऋत-चित् ) वेद द्वारा यज्ञचयन करता है सूर्य, वायु और वेद से हविष्मान् हो उत्तम फल प्राप्त करने में समर्थ और यत्नशील होता है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः॥ इन्द्रावरुणौ देवते। छन्दः—१, ४ आर्षी त्रिष्टुप् । २, ३, ५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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