ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 95/ मन्त्र 2
एका॑चेत॒त्सर॑स्वती न॒दीनां॒ शुचि॑र्य॒ती गि॒रिभ्य॒ आ स॑मु॒द्रात् । रा॒यश्चेत॑न्ती॒ भुव॑नस्य॒ भूरे॑र्घृ॒तं पयो॑ दुदुहे॒ नाहु॑षाय ॥
स्वर सहित पद पाठएका॑ । अ॒चे॒त॒त् । सर॑स्वती । न॒दीना॑म् । शुचिः॑ । य॒ती । गि॒रिऽभ्यः॑ । आ । स॒मु॒द्रात् । रा॒यः । चेत॑न्ती । भुव॑नस्य । भूरेः॑ । घृ॒तम् । पयः॑ । दु॒दु॒हे॒ । नाहु॑षाय ॥
स्वर रहित मन्त्र
एकाचेतत्सरस्वती नदीनां शुचिर्यती गिरिभ्य आ समुद्रात् । रायश्चेतन्ती भुवनस्य भूरेर्घृतं पयो दुदुहे नाहुषाय ॥
स्वर रहित पद पाठएका । अचेतत् । सरस्वती । नदीनाम् । शुचिः । यती । गिरिऽभ्यः । आ । समुद्रात् । रायः । चेतन्ती । भुवनस्य । भूरेः । घृतम् । पयः । दुदुहे । नाहुषाय ॥ ७.९५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 95; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
विषय - श्लेषमय वेद का अपूर्व चमत्कार ।
भावार्थ -
जिस प्रकार ( नदीनां एका सरस्वती शुचिः ) नदियों में से एक अधिक वेग, अधिक जल वाली, स्वच्छ-जला नदी ( गिरिभ्यः आ समुद्रात् यती ) पर्वतों से समुद्र तक जाती हुई ( नाहुषाय ) मनुष्य वर्ग के लिये ( घृतं पयः दुदुहे ) जल और अन्न प्रचुर मात्रा में प्रदान करती है, इसी प्रकार ( सरस्वती ) उत्तम ज्ञानवाली विदुषी स्त्री ( नदीनाम् ) अन्य समृद्ध, धनसम्पन्न स्त्रियों के बीच में भी ( शुचिः ) शुद्ध पवित्र आचार, चरित्र, रूप और वाणी वाली होकर ( एका चेतत् ) वह अकेली ही सर्व प्रशस्त जानी जाय । वह ( गिरिभ्यः ) उपदेष्टा पिता आदि गुरुओं से ( समुद्रात् ) कामना योग्य, हर्षजनक पति-गृह को (यती ) प्राप्त होती हुई ( भुवनस्य ) समस्त लोकों को ( भूरेः रायः चेतन्ती ) अपने बहुत उत्तम ऐश्वर्य को बतलाती हुई, ( नाहुषाय ) सम्बन्ध में बांधने वाले अपने पति के लिये ( घृतं पयः ) घी, स्नेह, दुग्ध, अन्न आदि की ( दुदुहे ) खूब वृद्धि करे और उनसे सबको पुष्ट करे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ १, २, ४–६ सरस्वती । ३ सरस्वान् देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ६ आर्षी त्रिष्टुप् । ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
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