ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 11/ मन्त्र 2
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒भि ते॒ मधु॑ना॒ पयोऽथ॑र्वाणो अशिश्रयुः । दे॒वं दे॒वाय॑ देव॒यु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । ते॒ । मधु॑ना । पयः॑ । अथ॑र्वाणः । अ॒शि॒श्र॒युः॒ । दे॒वम् । दे॒वाय॑ । दे॒व॒ऽयु ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि ते मधुना पयोऽथर्वाणो अशिश्रयुः । देवं देवाय देवयु ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । ते । मधुना । पयः । अथर्वाणः । अशिश्रयुः । देवम् । देवाय । देवऽयु ॥ ९.११.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
विषय - विद्वानों का राजशक्ति से सहयोग। उसका उत्तम फल।
भावार्थ -
(अथर्वाणः) शान्तिजनक अहिंसक जन (ते देवाय) तुझ तेजस्वी पुरुष के (देवं) प्रकाशक (देवयु) विद्वानों के अभिमत, उनके रक्षक (पयः) पोषण बल को (मधुना) ज्ञान वा अन्नादि से (अभि अशिश्रयुः) परिष्कृत करते हैं। राजा में बल है तो विद्वानों में ज्ञान है। विद्वान् ही उसका सहयोग करके उस के बलैश्वर्य को ज्ञानसम्पन्न करें। उस को अन्धा बैल न बना रहने दें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - असितः काश्यप। देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः–१–४, ९ निचृद गायत्री। ५–८ गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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