ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 66/ मन्त्र 1
ऋषिः - शतं वैखानसाः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
पव॑स्व विश्वचर्षणे॒ऽभि विश्वा॑नि॒ काव्या॑ । सखा॒ सखि॑भ्य॒ ईड्य॑: ॥
स्वर सहित पद पाठपव॑स्व । वि॒श्व॒ऽच॒र्ष॒णे॒ । अ॒भि । विश्वा॑नि । काव्या॑ । सखा॑ । सखि॑ऽभ्यः । ईड्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पवस्व विश्वचर्षणेऽभि विश्वानि काव्या । सखा सखिभ्य ईड्य: ॥
स्वर रहित पद पाठपवस्व । विश्वऽचर्षणे । अभि । विश्वानि । काव्या । सखा । सखिऽभ्यः । ईड्यः ॥ ९.६६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 66; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
विषय - पवमान सोम। प्रभु परमेश्वर का वर्णन। वह सर्वद्रष्टा, सर्वान्तर्यामी, मित्रों का मित्र, परम वन्दनीय है।
भावार्थ -
प्रभु परमेश्वर का वर्णन करते हैं—हे (विश्वचर्षणे) समस्त संसार को देखने और दिखाने वाले प्रभो ! तू (विश्वानि काव्यानि अभि पवस्व) समस्त कवि, विद्वान्, क्रान्तदर्शी और ज्ञानी पुरुषों द्वारा करने और जानने योग्य कर्मों और ज्ञानों को (अभि पवस्व) प्राप्त करा। तू (सखिभ्यः सखा) मित्रों का मित्र और (ईड्यः) सब से चाहने, स्तुति करने योग्य परम वन्दनीय है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शतं वैखानसा ऋषयः॥ १–१८, २२–३० पवमानः सोमः। १९—२१ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ पादनिचृद् गायत्री। २, ३, ५—८, १०, ११, १३, १५—१७, १९, २०, २३, २४, २५, २६, ३० गायत्री। ४, १४, २२, २७ विराड् गायत्री। ९, १२,२१,२८, २९ निचृद् गायत्री। १८ पाद-निचृदनुष्टुप् ॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
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