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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 117
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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गा꣢व꣣ उ꣡प꣢ वदाव꣣टे꣢ म꣣हि꣢ य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ र꣣प्सु꣡दा꣢ । उ꣣भा꣡ कर्णा꣢꣯ हिर꣣ण्य꣡या꣢ ॥११७॥

स्वर सहित पद पाठ

गा꣡वः꣢꣯ । उ꣡प꣢꣯ । व꣣द । अवटे꣢ । म꣣ही꣡इति꣢ । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । र꣣प्सु꣡दा꣢ । र꣣प्सु꣢ । दा꣣ । उभा꣢ । क꣡र्णा꣢꣯ । हि꣣रण्य꣡या꣢ ॥११७॥


स्वर रहित मन्त्र

गाव उप वदावटे महि यज्ञस्य रप्सुदा । उभा कर्णा हिरण्यया ॥११७॥


स्वर रहित पद पाठ

गावः । उप । वद । अवटे । महीइति । यज्ञस्य । रप्सुदा । रप्सु । दा । उभा । कर्णा । हिरण्यया ॥११७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 117
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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भावार्थ -

भा० = हे ( गावः ) = गौओ  ! वाणियो ! रश्मियो ! नदियो ! ( अवटे १  ) = यज्ञस्थान, रक्षास्थान, ईश्वररूप, गंभीर स्थान में ( उपवद ) = आओ, अपना तात्पर्य प्रकाशित करो । अर्थात् गोएं जिस प्रकार रक्षास्थान में, रश्मियें सूर्य में और नदियें गंभीर गर्त्त, जलाशय या समुद्र में आश्रय पाती हैं इसी प्रकार हे वाणियो ! तुम सकल रक्षक परमेश्वर में लगती हो । ( मही ) = विशाल यह पृथ्वी और यह द्यौलोक ( यज्ञस्य ) = यज्ञ का ( रप्सुदा ) = उत्तम फल देनेवाले हैं । ( उभा ) = दोनों ( हिरण्यया ) = हरणशील, भोग्य लोको के प्राप्त कराने में ( कर्णा ) = साधनभूत हैं ।

[टि० - इस मन्त्र पर सब भाष्यकारों के मत भिन्न २ हैं  । यजुर्वेद में महीधर और उवट के मत में – "वे गौए कूए के समीप आवें और पृथ्वी और द्यौ यज्ञ का फल देने वाली है और इनके दोनों कान सोने के हैं ।' सायण के मत से – 'हे ( गावः ) = यज्ञकर्त्ताओ  ! तुम महावीर के पात्र की स्तुति करो यह यज्ञ का फल देता है। उस कूण्डे के दोनों कान सोने के हैं।" स्वामी तुलसीराम के मत से - 'यज्ञकुण्ड के समीप हे वाणियों ! तुम इन्द्र की स्तुति करो जिससे यज्ञभूमि वेदपाठ के प्रवाहवाली हो और श्रोताओं के दोनों कान प्रकाशमय हो ।" इनमें कर्मकाण्ड को लक्ष्य करके यज्ञ के विनियोग के अनुसार सायण महीधरादि की पदयोजना संगत है । परन्तु अध्याहार और उन्नेयार्थता का दूषण है। यही दोष तुलसीरामजी के अर्थ में भी है। हमारी सम्मति में 'ओम्', 'अवत', 'अवट' ये तीनों शब्द रक्षार्थक अव धातु से बने हैं, इसलिये यह मन्त्र परमात्मा की स्तुति पर लगना चाहिये । ]

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

 

ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः।

छन्दः - गायत्री। 

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