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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 136
ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣣म꣡ उ꣢ त्वा꣣ वि꣡ च꣢क्षते꣣ स꣡खा꣢य इन्द्र सो꣣मि꣡नः꣢ । पु꣣ष्टा꣡व꣢न्तो꣣ य꣡था꣢ प꣣शु꣢म् ॥१३६॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣣मे꣢ । उ꣣ । त्वा । वि꣢ । च꣣क्षते । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । इन्द्र । सो꣡मिनः꣢ । पु꣣ष्टा꣡व꣢न्तः । य꣡था꣢꣯ । प꣣शु꣢म् ॥१३६॥


स्वर रहित मन्त्र

इम उ त्वा वि चक्षते सखाय इन्द्र सोमिनः । पुष्टावन्तो यथा पशुम् ॥१३६॥


स्वर रहित पद पाठ

इमे । उ । त्वा । वि । चक्षते । सखायः । स । खायः । इन्द्र । सोमिनः । पुष्टावन्तः । यथा । पशुम् ॥१३६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 136
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
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भावार्थ -

भा० = ( पुष्टावन्तः ) = पुष्टिकारक पदार्थ घास दाना आदि को हाथ में लिये पशुपालक पुरुष ( यथा ) = जिस प्रकार स्नेह से अपने ( पशुं१  ) = पालतू पशु को देखते हैं उसी प्रकार है ( इन्द्र ) = ! परमेश्वर ! ( इमे ) = ये  ( सोमिनः ) = सोमरस या आत्मज्ञान के धारण करने वाले पुरुष तेरे ( सखायः ) = मित्र ( त्वा ) = तुझको देखते हैं ।

स्नेह प्रदर्शनमात्र समान धर्म दिखाया गया है। आत्मज्ञान साधक पुरुष नानास्तुति, ज्ञान चर्चा एवं ध्यान साधना द्वारा अन्तरात्मा एवं ब्रह्म को बुलाते हैं, उसके प्रेम में उसको निरन्तर निहारते हैं कि "अब दर्शन देता है, अब देना है. अब  ! अब !। गीता में जैसे - 'देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाक्षिणः ।" 

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

ऋषिः - त्रिशोकः। 

छन्दः - गायत्री।

स्वरः - षड्जः। 

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