Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 141
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
10

अ꣣द्य꣡ नो꣢ देव सवितः प्र꣣जा꣡व꣢त्सावीः꣣ सौ꣡भ꣢गम् । प꣡रा꣢ दुः꣣ष्व꣡प्न्य꣢ꣳ सुव ॥१४१॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । नः꣣ । देव । सवितरि꣡ति꣢ । प्र꣣जा꣡व꣢त् । प्र꣣ । जा꣡व꣢꣯त् । सा꣣वीः । सौ꣡भ꣢꣯गम् । सौ । भ꣣गम् । प꣡रा꣢꣯ । दु꣣ष्वप्न्य꣢म् । दुः꣣ । स्व꣡प्न्य꣢꣯म् । सु꣣व ॥१४१॥


स्वर रहित मन्त्र

अद्य नो देव सवितः प्रजावत्सावीः सौभगम् । परा दुःष्वप्न्यꣳ सुव ॥१४१॥


स्वर रहित पद पाठ

अद्य । अ । द्य । नः । देव । सवितरिति । प्रजावत् । प्र । जावत् । सावीः । सौभगम् । सौ । भगम् । परा । दुष्वप्न्यम् । दुः । स्वप्न्यम् । सुव ॥१४१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 141
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
Acknowledgment

भावार्थ -

भा० = हे ( सवितः ) = सब के प्रेरक, उत्पादक, प्रकाशमान् देव, आत्मन् ! ( नः ) = हमारा ( प्रजावत् ) = अपनी प्रजाओं के समान ( सौभगं ) = उत्तम कल्याण ( अद्य ) = आज, प्रतिदिन ( सावी: ) = उत्पन्न कर । ( दुःष्वप्न्यं  ) = चित्त में से दुःसंकल्पों के कारण होने वाले तन्द्राकालिक प्रमाद को ( परा सुव ) = दूर कर। 

योग के साधनों को करते हुए साधक के आग्रहपूर्वक संयम द्वारा इन्द्रियों का बाह्य निरोध होजाने पर भी मन की पूर्व वासनाएं तन्द्रा के अवसर पर दुःस्वप्नों का कारण होती हैं । उनको दूर करने और शुभ विचारों के प्रबल होने की इस मन्त्र में प्रार्थना है । 

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

ऋषिः - श्यावाश्व ।

छन्दः - गायत्री।

स्वरः - षड्जः।

इस भाष्य को एडिट करें
Top