Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 147
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
8

अ꣢꣫त्राह꣣ गो꣡र꣢मन्वत꣣ ना꣢म꣣ त्व꣡ष्टु꣢रपी꣣꣬च्य꣢꣯म् । इ꣣त्था꣢ च꣣न्द्र꣡म꣢सो गृ꣣हे꣢ ॥१४७॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡त्र꣢꣯ । अ꣡ह꣢꣯ । गोः । अ꣣मन्वत । ना꣡म꣢꣯ । त्व꣡ष्टुः꣢꣯ । अ꣣पीच्य꣢꣯म् । इ꣣त्था꣢ । च꣣न्द्र꣡म꣢सः । च꣣न्द्र꣢ । म꣣सः । गृहे꣢ ॥१४७॥


स्वर रहित मन्त्र

अत्राह गोरमन्वत नाम त्वष्टुरपीच्यम् । इत्था चन्द्रमसो गृहे ॥१४७॥


स्वर रहित पद पाठ

अत्र । अह । गोः । अमन्वत । नाम । त्वष्टुः । अपीच्यम् । इत्था । चन्द्रमसः । चन्द्र । मसः । गृहे ॥१४७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 147
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4;
Acknowledgment

भावार्थ -

भा० = ( अत्र ह ) = यहां निश्चय से ( त्वष्टुः ) = दीप्तिमान्, तेजस्वी सूर्य की ( गो: ) = गमनशील किरण का ( अपीच्यम् ) = कुछ सुषुप्त अंश ही ( चन्द्रमसो गृहे ) = चन्द्रमा के घर में ( नाम ) = गया हुआ है। ( इत्था अमन्वत ) = ऐसा मानते हैं। 

इस प्रकरण में प्राण ही त्वष्टा है जो गर्भगत पुरुष को ९ , १० मास में शनैः २ बनाता है। गर्भाशय का गुप्तभाग चन्दमा का घर है जो १६ कलायुक्त है। जो क्रम से एक पक्ष में घटता और १५ दिन में बढ़कर पुनः ऋतुकाल में वेला के समान उस्थित होता है । उस स्थान पर भी सृष्टिकर्ता परमात्मा की ही यह शक्ति है जो गर्भ में भी गुप्तरूप से विद्यमान है। उस गर्भ में भी गति है। उसमें भी मुख्य प्राण-आदित्य का ही अंश प्रसुप्तरूप में शनैः २ बढ़ता है। अथवा त्वष्टा पुरुष को कहते हैं पुरुष का वीर्यांश ही गर्भाशय में जाता है। जैसा उपनिषद में लिखा है 'पुरुषे  हवा अयमादितो गर्भो भवति । यदतद् रेतस्तदेतत्सर्वेभ्योऽङ्गेभ्यस्तेजः संभूतमात्मन्येवात्मानं विभर्ति । तद्यदा स्त्रियां सिञ्चति अथैनज्जनयति तदस्य प्रथम जन्म, इत्यादि ( एत० उप० अ० २।  १- ६ ) । प्राणरयि  की विवेचना करते हुए उपनिषत्कार ( प्रश्न० उ० ) ने पुरुष को आदित्य और प्राण और स्त्री को चन्द्र और रयि माना है। इस मन्त्र को उद्धृत करके यास्कने लिखा है—“अथाप्यस्यैको रश्मिश्चन्द्रमसं प्रति दीप्यते तदेतेनोपेक्षितव्यम् । आदित्यतोऽस्य दीप्तिर्भवति इति । सुषुम्ण:  सूर्यरश्मिश्चन्दमा गन्धर्वः इत्यपि निगमो भवति । सोऽपि गोरुच्यते, अत्राहगोरमन्वतेति सदुपरिष्टाद् व्याख्यास्यामः ।

अर्थ:– आदित्य भी 'गौ' कहाता है। इसकी एक रश्मि चन्द्रमा को प्रकाशित करती है। जैसे यजुर्वेद ( १८ । ४०) में लिखा है। इस सुषुम्ना को भी 'गौ ' कहते हैं जैसे 'अत्राह गोरमन्वत' इत्यादि मन्त्र का व्याख्यान आगे यास्क ने ( ४ । ४ ) में किया है कि अत्राह गोः सममंसत आदित्यरश्मयः । स्वं नाम अपीच्यं अपगतमपचितमपहितमन्तर्हितं वाऽमुत्र चन्द्रमसो गृहे । "

आधिदैविक पक्ष में यास्क का यह व्याख्यान है। परन्तु शरीर पक्ष  मे उपनिषदों का मूल सिद्धान्त ग्रहण करने योग्य है। उपनिषदों में गर्भ में जीव की स्थिति एवं पुष्टि और जन्म और शरीर रचना जीवनयात्रा आदि के प्रश्नों की खूब सूक्ष्म विवेचना की है। छान्दोग्य के तृतीय प्रपाठक में आदित्य की सब रश्मियों की विवेचना मुख्य प्राण को लक्ष्य करके की है।

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

ऋषिः - गोतम:।

देवता - इन्द्रः।

छन्दः - गायत्री।

स्वरः - षड्जः। 

इस भाष्य को एडिट करें
Top