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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 161
ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣भि꣡ त्वा꣢ वृषभा सु꣣ते꣢ सु꣣त꣡ꣳ सृ꣢जामि पी꣣त꣡ये꣢ । तृ꣣म्पा꣡ व्य꣢श्नुही꣣ म꣡द꣢म् ॥१६१॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣भि꣢ । त्वा꣣ । वृषभ । सुते꣢ । सु꣣त꣢म् । सृ꣣जामि । पीत꣡ये꣢ । तृ꣣म्प꣢ । वि । अ꣣श्नुहि । म꣡द꣢꣯म् ॥१६१॥


स्वर रहित मन्त्र

अभि त्वा वृषभा सुते सुतꣳ सृजामि पीतये । तृम्पा व्यश्नुही मदम् ॥१६१॥


स्वर रहित पद पाठ

अभि । त्वा । वृषभ । सुते । सुतम् । सृजामि । पीतये । तृम्प । वि । अश्नुहि । मदम् ॥१६१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 161
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 5;
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भावार्थ -

भा० = हे ( वृषभ ) = अन्तरात्मा में सुख की वर्षा करने हारे श्रेष्ठ! ( सुते ) = सोम=ज्ञान या साधना, कर्म के उचितरूप से होजाने पर उसके ( पीतये) = रस पान करने के लिये ( सुतं ) = उत्तम ज्ञान का ( त्वा अभि  सृजामि ) = तेरे सन्मुख ही सम्पादन करता हूं। ( तृम्प ) = तू उससे तृप्त  हो और ( मदम् ) = हर्ष, सुख को ( वि. अश्नुहि ) = प्राप्त कर। 

योगी, अवधूत लोग समाधि-रस को मद्यरस से तुलना देते हैं और आत्मा को बुलाते हैं। धर्ममेघ समाधि की सिद्धि प्राप्त होजाने पर आत्मा की वह अवस्था होजाती है ।

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

ऋषिः - त्रिशोकः ।

देवता - इन्द्रः। 

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