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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 27
ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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अ꣣ग्नि꣢र्मू꣣र्धा꣢ दि꣣वः꣢ क꣣कु꣡त्पतिः꣢꣯ पृथि꣣व्या꣢ अ꣣य꣢म् । अ꣣पा꣡ꣳ रेता꣢꣯ꣳसि जिन्वति ॥२७॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣ग्निः꣢ । मू꣣र्धा꣢ । दि꣣वः꣢ । क꣣कु꣢त् । प꣡तिः꣢꣯ । पृ꣣थिव्याः꣢ । अ꣣य꣢म् । अ꣣पां꣢ । रे꣡ताँ꣢꣯सि । जि꣣न्वति ॥२७॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम् । अपाꣳ रेताꣳसि जिन्वति ॥२७॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निः । मूर्धा । दिवः । ककुत् । पतिः । पृथिव्याः । अयम् । अपां । रेताँसि । जिन्वति ॥२७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 27
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3;
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विषय - परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ -
भा० = ( अयम् ) = यह ( अग्निः ) = अग्नि ( मूर्धा ) = सब का शिरोमणि, ( दिवः ककुत् ) = द्यौलोक या सूर्य के ककुद् भाग के समान उत्तम, वहन करने वाला, आश्रय और (पृथिव्याः पतिः ) = पृथिवी का पति स्वामी है । वही ( अपाम् ) = सब लोकों के ( रेतांसि ) = बीजभूत समस्त स्थावर और जंगम प्राणियों को ( जिन्वति ) = तृप्त करता है, जीवन देता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
ऋषिः - विरूप:।
छन्द: - गायत्री।
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