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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 411
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣢न्द्रो꣣ म꣡दा꣢य वावृधे꣣ श꣡व꣢से वृत्र꣣हा꣡ नृभिः꣢꣯ । त꣢꣯मिन्म꣣ह꣢त्स्वा꣣जि꣢षू꣣ति꣡मर्भे꣢꣯ हवामहे꣣ स꣡ वाजे꣢꣯षु꣣ प्र꣡ नो꣢ऽविषत् ॥४११॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्रः꣢꣯ । म꣡दा꣢꣯य । वा꣣वृधे । श꣡व꣢꣯से । वृ꣣त्रहा꣢ । वृ꣣त्र । हा꣢ । नृ꣡भिः꣢꣯ । तम् । इत् । म꣣ह꣡त्सु꣢ । आ꣣जि꣡षु꣢ । ऊ꣣ति꣢म् । अ꣡र्भे꣢꣯ । ह꣣वामहे । सः꣢ । वा꣡जे꣢꣯षु । प्र । नः꣣ । अविषत् ॥४११॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्रो मदाय वावृधे शवसे वृत्रहा नृभिः । तमिन्महत्स्वाजिषूतिमर्भे हवामहे स वाजेषु प्र नोऽविषत् ॥४११॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्रः । मदाय । वावृधे । शवसे । वृत्रहा । वृत्र । हा । नृभिः । तम् । इत् । महत्सु । आजिषु । ऊतिम् । अर्भे । हवामहे । सः । वाजेषु । प्र । नः । अविषत् ॥४११॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 411
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 7;
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भावार्थ -

भा० = ( इन्द्रः ) = परमेश्वर ! ( मदाय ) = प्रजाजनों के हर्ष करने के लिये और ( शवसे ) = बल के लिये ( वावृधे ) = बहुत बड़ा है । वह ( वृत्रहा ) = सब विघ्नों का नाश करने वाला ( नृभिः ) = अपनी प्रजाओं के साथ ( वाजेषु ) = संग्राम और ज्ञान यज्ञों में ( नः प्र आविषत् ) = हमारी रक्षा करता है । ( ऊतिम् ) = अपनी रक्षा स्वरूप ( तम् इत् ) = उसको ही ( महत्सु ) = बड़े  २ ( आजिषु ) = ज्ञान चर्चा के स्थानों या संग्रामों, और यज्ञों में और ( अर्भे ) = सूक्ष्म हृदयावास में भी ( हवामहे ) = हम उसका स्मरण करते हैं। अर्भ , अल्प, दभ्र , दहर आदि का विवरण छान्दोग्य, और केन दोनों उपनिषदों में स्पष्ट है। आजि=चरम सीमा ।  राजा के पक्ष में - आजि=संग्राम।  

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

 

ऋषिः - गोतम:।

देवता - इन्द्रः।

छन्दः - पङ्क्तिश्छंद:।

स्वरः - पञ्चमः। 

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