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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 580
ऋषिः - ऋजिश्वा भारद्वाजः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - ककुप् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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आ꣡ सो꣢ता꣣ प꣡रि꣢ षिञ्च꣣ता꣢श्वं꣣ न꣡ स्तोम꣢꣯म꣣प्तु꣡र꣢ꣳ रज꣣स्तु꣡र꣢म् । व꣣नप्रक्ष꣡मु꣢द꣣प्रु꣡त꣢म् ॥५८०॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । सो꣣त । प꣡रि꣢꣯ । सि꣣ञ्चत । अ꣡श्व꣢꣯म् । न । स्तो꣡म꣢꣯म् । अ꣣प्तु꣡र꣢म् । र꣣जस्तु꣡र꣢म् । व꣣नप्रक्ष꣢म् । व꣣न । प्रक्ष꣢म् । उ꣣दप्रु꣡त꣢म् । उ꣣द । प्रु꣡त꣢꣯म् ॥५८०॥


स्वर रहित मन्त्र

आ सोता परि षिञ्चताश्वं न स्तोममप्तुरꣳ रजस्तुरम् । वनप्रक्षमुदप्रुतम् ॥५८०॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । सोत । परि । सिञ्चत । अश्वम् । न । स्तोमम् । अप्तुरम् । रजस्तुरम् । वनप्रक्षम् । वन । प्रक्षम् । उदप्रुतम् । उद । प्रुतम् ॥५८०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 580
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 11;
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भावार्थ -

 भा० = हे साधकगण ! ( स्तोमं ) = स्तुति योग्य, ( अप्तुरं ) = ज्ञान और कर्मों से प्राप्त करने योग्य ( रजस्तुरम् ) = समस्त लोकों में व्यापक ( वनप्रक्षम् ) = सबके आत्माओ  में कूटस्थरूप से व्यापक, फलों को जैसे वृक्ष देता है उसी प्रकार सेवन करने योग्य आनन्दरसों को देने वाले ( उद-प्रुतम् ) = ज्ञान से परिपूर्ण, शान्ति के दायक, आत्मरस को ( आसोत ) = अपने हृदय में प्रकट करो । ( परि षिञ्चत ) = पुनः उसक आनन्दमय रसों का आ सेचन करो । 

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

ऋषिः - ऋजिश्वा भारद्वाजः।

देवता - पवमान:।

छन्दः - ककुप्।

स्वरः - ऋषभः। 

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