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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 61
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
1

त्व꣡म꣢ग्ने गृ꣣ह꣡प꣢ति꣣स्त्व꣡ꣳ होता꣢꣯ नो अध्व꣣रे꣢ । त्वं꣡ पोता꣢꣯ विश्ववार꣣ प्र꣡चे꣢ता꣣ य꣢क्षि꣣ या꣡सि꣢ च꣣ वा꣡र्य꣢म् ॥६१॥

स्वर सहित पद पाठ

त्व꣢म् । अ꣣ग्ने । गृह꣡प꣢तिः । गृ꣣ह꣢ । प꣣तिः । त्व꣢म् । हो꣡ता꣢꣯ । नः꣢ । अध्वरे꣢ । त्वम् । पो꣡ता꣢꣯ । वि꣣श्ववार । विश्व । वार । प्र꣡चे꣢꣯ताः । प्र । चे꣣ताः । य꣡क्षि꣢꣯ । या꣡सि꣢꣯ । च꣣ । वा꣡र्य꣢꣯म् ॥६१॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वमग्ने गृहपतिस्त्वꣳ होता नो अध्वरे । त्वं पोता विश्ववार प्रचेता यक्षि यासि च वार्यम् ॥६१॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । अग्ने । गृहपतिः । गृह । पतिः । त्वम् । होता । नः । अध्वरे । त्वम् । पोता । विश्ववार । विश्व । वार । प्रचेताः । प्र । चेताः । यक्षि । यासि । च । वार्यम् ॥६१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 61
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6;
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भावार्थ -

भा० = हे अग्ने ! ( त्वं ) = तू ( गृहपतिः ) = घर का स्वामी है, ( त्वं ) = तू ( नः ) = हमारे ( अध्वरे ) = यज्ञ, हिंसारहित श्रेष्ठ कर्म में ( होता ) = यजमान और समस्त भोग्य पदार्थों के देने और स्वीकार करने वाला या विद्वान् दिव्य गुणों, पुरुषों और शक्तियों को बुला कर हमें प्राप्त कराने वाला है । हे ( विश्ववार ) = समस्त संसार के वरण करने योग्य या सब विघ्नों के वारण करनेहारे रक्षक ! ( त्वं ) = तू ( पोता १  ) = सब कार्यों का परिशोधक, निरीक्षक, ( प्रचेताः ) = उत्कृष्ट मतिसम्पन्न है ।  तू ही ( वार्यम् ) = सब को प्रसन्न करने वाले वरणयोग्य, श्रेष्ठ पदार्थ ऐश्वर्य को ( यक्षि  ) = देता है और ( यासि च२   ) = हमें प्राप्त कराता है या स्वयं स्वीकार करता है । 
 

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

ऋषिः - वसिष्ठ:। 
छन्दः - बृहती।
 

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