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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 817
ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
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स꣡म्मि꣢श्लो अरु꣣षो꣡ भु꣢वः सूप꣣स्था꣡भि꣣र्न꣢ धे꣣नु꣡भिः꣢ । सी꣡द꣢ञ्छ्ये꣣नो꣢꣫ न यो꣣निमा꣢ ॥८१७॥
स्वर सहित पद पाठसं꣡मि꣢꣯श्लः । सम् । मि꣣श्लः । अरुषः꣢ । भु꣣वः । सूपस्था꣡भिः꣢ । सु꣣ । उपस्था꣡भिः꣢ । न । धे꣣नु꣡भिः꣢ । सी꣡द꣢꣯न् । श्ये꣣नः꣢ । न । यो꣡नि꣢꣯म् । आ ॥८१७॥
स्वर रहित मन्त्र
सम्मिश्लो अरुषो भुवः सूपस्थाभिर्न धेनुभिः । सीदञ्छ्येनो न योनिमा ॥८१७॥
स्वर रहित पद पाठ
संमिश्लः । सम् । मिश्लः । अरुषः । भुवः । सूपस्थाभिः । सु । उपस्थाभिः । न । धेनुभिः । सीदन् । श्येनः । न । योनिम् । आ ॥८१७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 817
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - missing
भावार्थ -
हे (सोम) सर्वैश्वर्यवन्! ज्ञान के दातः ! (सूपस्थाभिः धेनुभिः न) सुख से समीप प्राप्त होने वाली, सुशील गौएं जिस प्रकार मधुर दुग्ध प्रदान करती हैं उसी प्रकार तू (सूपस्थाभिः) आचार्य के समीप जाकर सुख से प्राप्त करने योग्य (धेनुभिः) ब्रह्मास्वाद, रस का पान कराने हारी वेद और उपनिषद् की स्तुति वाणियों से (सम्मिश्लः) उत्तम रीति से युक्त होकर (अरुषः) अतिरोचक, कान्तिसम्पन्न (भुवः) होता है और तभी (श्येनः न) बाज़ के समान शीघ्र गतिकारी एवं ज्ञानवान् आत्मा रूप (योनिम्) अपने आश्रय रूप, शरणप्रद परमेश्वर में (आसीदन्) विराजमान होता है।
अथवा—(सूपस्थाभिर्न धेनुभिः) सुशील गायों से जिस प्रकार (अरुषः) लाल सांड (संमिश्लः भुवः) युक्त रहे और जिस प्रकार (श्येनः न योनिम् आसीदत्) बाज़ अपने आश्रय स्थान पर जाता है उसी प्रकार उत्तम रूप से स्थिर रहने वाली, रसप्रद इन्द्रियों या वाणियों द्वारा युक्त होकर आत्मा अपने गृह के समान परम आश्रयप्रद शरण, परब्रह्म में मग्न होजाता है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - missing
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