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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 55/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    तत्सु नः॑ सवि॒ता भगो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा। इन्द्रो॑ नो॒ राध॒सा ग॑मत् ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । सु । नः॒ । स॒वि॒ता । भगः॑ । वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । इन्द्रः॑ । नः॒ । राध॑सा । आ । ग॒म॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तत्सु नः सविता भगो वरुणो मित्रो अर्यमा। इन्द्रो नो राधसा गमत् ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। सु। नः। सविता। भगः। वरुणः। मित्रः। अर्यमा। इन्द्रः। नः। राधसा। आ। गमत् ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 55; मन्त्र » 10
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    (सविता) सबका उत्पादक सूर्यवत् तेजस्वी (भगः) ऐश्वर्यवान्, (वरुणः) सर्वश्रेष्ठ, सब दुःखों व कष्टों का वारक (मित्रः) सब का स्नेही, प्रजा को मरने से बचाने वाला, (अर्यमा) न्यायकारी और शत्रुओं को नियम में रखने वाला, (इन्द्रः) विद्युत् और वायु के बलवान्, ऐश्वर्यवान् पुरुष (तत्) उन उन नाना प्रकार के (राधसा) कार्य साधक धनसहित (सु गमत्) सुखपूर्वक प्राप्त हो । इति सप्तमो वर्गः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवता॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् । २, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५ भुरिक् पंक्तिः। ६,७ स्वराट् पंक्तिः। ८,९ विराड् गायत्री। १० गायत्री॥

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