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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 102 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 102/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    व॒यं ज॑येम॒ त्वया॑ यु॒जा वृत॑म॒स्माक॒मंश॒मुद॑वा॒ भरे॑भरे। अ॒स्मभ्य॑मिन्द्र॒ वरि॑वः सु॒गं कृ॑धि॒ प्र शत्रू॑णां मघव॒न्वृष्ण्या॑ रुज ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒यम् । ज॒ये॒म॒ । त्वया॑ । यु॒जा । वृत॑म् । अ॒स्माक॑म् । अंश॑म् । उत् । अ॒व॒ । भरे॑ऽभरे । अ॒स्मभ्य॑म् । इ॒न्द्र॒ । वरि॑वः । सु॒ऽगम् । कृ॒धि॒ । प्र । शत्रू॑णाम् । म॒घ॒ऽव॒न् । वृष्ण्या॑ । रु॒ज॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयं जयेम त्वया युजा वृतमस्माकमंशमुदवा भरेभरे। अस्मभ्यमिन्द्र वरिवः सुगं कृधि प्र शत्रूणां मघवन्वृष्ण्या रुज ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वयम्। जयेम। त्वया। युजा। वृतम्। अस्माकम्। अंशम्। उत्। अव। भरेऽभरे। अस्मभ्यम्। इन्द्र। वरिवः। सुऽगम्। कृधि। प्र। शत्रूणाम्। मघऽवन्। वृष्ण्या। रुज ॥ १.१०२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 102; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 4

    व्याखान -

    हे इन्द्र– परमात्मन्! (त्वया युजा, वयं, जयेम) आपके साथ वर्त्तमान, आपकी सहायता से हम लोग दुष्ट शत्रुओं को जीतें । कैसा है वह शत्रु, कि (आवृतम्) हमारे बल से घिरा हुआ। हे महाराजाधिराजेश्वर ! (भरे भरे अस्माकमंशमुदव) युद्ध-युद्ध (प्रत्येक युद्ध) में हमारे अंश (बल), सेना का (उदव), उत्कृष्ट रीति से कृपा करके रक्षण करो, जिससे क्षीण होके किसी युद्ध में हम पराजय को प्राप्त न हों, क्योंकि जिनको आपका सहाय है, उनका सर्वत्र विजय ही होता है । हे इन्द्र, (मघवन्) महाधनेश्वर! (शत्रूणां, वृष्ण्या) हमारे शत्रुओं के वीर्य, पराक्रमादि को (प्ररुज) प्रभग्न - रुग्ण करके नष्ट कर दे । (अस्मभ्यं, वरिवः सुगं, कृधि) हमारे लिए चक्रवर्ती राज्य और साम्राज्य धन को (सुगम्) सुख से प्राप्त कर, अर्थात् आपकी करुणा से हमारा राज्य और धन सदा वृद्धि को ही प्राप्त हो ॥ ४३ ॥

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