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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 48
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - स्वराड् ब्राह्मी बृहती स्वरः - मध्यमः
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    अग्ने॒ त्वं नो॒ अन्त॑मऽउ॒त त्रा॒ता शि॒वो भ॑वा वरू॒थ्यः। वसु॑र॒ग्निर्वसु॑श्रवा॒ऽअच्छा॑ नक्षि द्यु॒मत्त॑मꣳ र॒यिं दाः॑। तं त्वा॑ शोचिष्ठ दीदिवः सु॒म्नाय॑ नू॒नमी॑महे॒ सखि॑भ्यः॥४८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। त्वम्। नः॒। अन्त॑मः। उ॒त। त्रा॒ता। शि॒वः। भ॒व॒। व॒रू॒थ्यः᳖। वसुः॑। अ॒ग्निः। वसु॑श्रवा॒ इति॒ वसु॑ऽश्रवाः। अच्छ॑। न॒क्षि॒। द्यु॒मत्त॑म॒मिति॑ द्यु॒मत्ऽत॑मम्। र॒यिम्। दाः॒। तम्। त्वा॒। शो॒चि॒ष्ठ॒। दी॒दि॒व॒ इति॑ दीदिऽवः। सु॒म्नाय॑। नू॒नम्। ई॒म॒हे॒। सखि॑भ्य॒ इति॒ सखि॑ऽभ्यः ॥४८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने त्वन्नोऽअन्तमऽउत त्राता शिवो भव वरूथ्यः । वसुरग्निर्वसुश्रवाऽअच्छा नक्षि द्युमत्तमँ रयिन्दाः तन्त्वा शोचिष्ठ दीदिवः सुम्नाय नूनमीमहे सखिभ्यः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। त्वम्। नः। अन्तमः। उत। त्राता। शिवः। भव। वरूथ्यः। वसुः। अग्निः। वसुश्रवा इति वसुऽश्रवाः। अच्छ। नक्षि। द्युमत्तममिति द्युमत्ऽतमम्। रयिम्। दाः। तम्। त्वा। शोचिष्ठ। दीदिव इति दीदिऽवः। सुम्नाय। नूनम्। ईमहे। सखिभ्य इति सखिऽभ्यः॥४८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 48
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (अग्ने) विद्वान महोदय, (त्वम्) आपणाप्रमाणे हा (अग्नि:) अग्नी (वसु:) धन देणारा असून (वसुश्रवा:) भोजन व धन प्राप्त करण्याचे कारण आहे. तसेच (रजिम्) आम्हाला ऐश्वर्य (दा:) देतो. या अग्नीप्रमाणे आपणही (न:) आमच्या (अन्तम:) अत्यंत जवळ रहा, आमचे (त्राता) रक्षक, (वरुथ्य:) सर्वश्रेष्ठ (उत) आणि (शिव:) मंगलकारी मार्गदर्शक (भव) व्हा. हे (शोचिष्ठ) अतितेजस्वी आणि (दीदिव:) अनेक विद्या आदी प्रकाशाने युक्त विद्वान महोदय, जसे आम्ही (सामान्यजन) (त्या) आपणांला (सखिभ्य:) आमच्या मित्रांपासून (सुम्नाय) सुखाकरिता (नूनम्) निश्चयाने (ईमहे) मागत आहोत, (आम्हाला आपणासारखा विद्वान मार्गदर्शक मिळावा, अशी इच्छा अनेक श्रेष्ठ मित्रांकडे व्यक्त करीत आहोत), त्याप्रमाणे (तम्) त्या आपली सर्व मनुष्यांनी इच्छा करावी. मी (एक जिज्ञासू) (सुक्रमम्) श्रेष्ठ प्रकाशमान, कीर्तिमान अशा आपणांजवळ (अच्छ) चांगल्याप्रकारे (सद्भावनेने) (नक्षि) प्राप्त होत आहे (ज्ञानप्राप्तीसाठी आपल्याकडे येत आहे) तसे आपणही मला प्राप्त व्हा (मला तत्परतेने ज्ञान द्या) ॥48॥

    भावार्थ - भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जसे एक मित्र आपल्या मित्रांची इच्छा करतो (त्याच्याशी मैत्री करतो) आणि त्याची उन्नती करतो, त्याप्रमाणे (समाजातील) विद्वानाने सर्वांचा मित्र राहून सर्वांना सुखी करावे ॥48॥

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