ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 13/ मन्त्र 7
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - उषासानक्ता
छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
नक्तो॒षासा॑ सु॒पेश॑सा॒ऽस्मिन्य॒ज्ञ उप॑ ह्वये। इ॒दं नो॑ ब॒र्हिरा॒सदे॑॥
स्वर सहित पद पाठनक्तो॒षासा॑ । सु॒ऽपेश॑सा । अ॒स्मिन् । य॒ज्ञे । उप॑ । ह्व॒ये॒ । इ॒दम् । नः॒ । ब॒र्हिः । आ॒ऽसदे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नक्तोषासा सुपेशसाऽस्मिन्यज्ञ उप ह्वये। इदं नो बर्हिरासदे॥
स्वर रहित पद पाठनक्तोषासा। सुऽपेशसा। अस्मिन्। यज्ञे। उप। ह्वये। इदम्। नः। बर्हिः। आऽसदे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 13; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रैतेनाहोरात्रे सुखं भवतीत्युपदिश्यते।
अन्वयः
अहमस्मिन् गृहे यज्ञे सुपेशसौ नक्तोषसावुपह्वय उपस्पर्द्धे, यतो नोऽस्माकमिदं बर्हिरासदे भवेत्॥७॥
पदार्थः
(नक्तोषसा) नक्तं चोषाश्चाहश्च रात्रिश्च ते। अत्र सुपां सुलुग्० इति औकारस्थाने आकारादेशः। नक्तमिति रात्रिनामसु पठितम्। (निघं०१.७) उषासा नक्तोषाश्च नक्ता चोषा व्याख्याता, नक्तेति रात्रिनामानक्ति भूतान्यवश्यायेनापि वा नक्ता व्यक्तवर्णा। (निरु०८.१०) (सुपेशसा) शोभनं सुखदं पेशो रूपं ययोस्ते। अत्र पूर्ववदाकारादेशः। पेश इति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (अस्मिन्) प्रत्यक्षे गृहे (यज्ञे) सङ्गते कर्त्तव्ये (उप) सामीप्ये (ह्वये) स्पर्द्धे (इदम्) प्रत्यक्षम् (नः) अस्माकम् (बर्हिः) निवासप्रापकं स्थानम्। बर्हिरिति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.२) अतः प्राप्त्यर्थो गृह्यते। (आसदे) समन्तात् सीदन्ति प्राप्नुवन्ति सुखानि यस्यां साऽऽसत्तस्यै॥७॥
भावार्थः
मनुष्यैरत्र विद्ययोपकृतेऽरात्रे सर्वप्राणिनां सुखहेतू भवत इति बोध्यम्॥७॥
हिन्दी (4)
विषय
उक्त कर्म से दिनरात सुख होता है, सो अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है-
पदार्थ
मैं (अस्मिन्) इस घर तथा (यज्ञे) सङ्गत करने के कामों में (सुपेशसा) अच्छे रूपवाले (नक्तोषसा) रात्रिदिन को (उपह्वये) उपकार में लाता हूँ, जिस कारण (नः) हमारा (बर्हिः) निवासस्थान (आसदे) सुख की प्राप्ति के लिये हो॥७॥
भावार्थ
मनुष्यों को उचित है कि इस संसार में विद्या से सदैव उपकार लेवें, क्योंकि रात्रिदिन सब प्राणियों के सुख का हेतु होता है॥७॥
विषय
उक्त कर्म से दिनरात सुख होता है, सो इस मन्त्र में प्रकाशित किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
अहम् अस्मिन् गृहे यज्ञे सुपेशसौ नक्तोषसा उप ह्वय उपस्पर्द्धे, यतः नःअस्माकम् इदम् बर्हिः आसदे भवेत्॥७॥
पदार्थ
(अहम्)=मैं, (अस्मिन्)=इस, (गृहे)=घर में, (यज्ञे) सङ्गते कर्त्तव्ये = सङ्गति करण के कार्य में, (सुपेशसा) शोभनं सुखदं पेशो रूपं ययोस्ते=वे जिनका रूप सुखदायी और सुन्दर है, (नक्तोषसा) नक्तं चोषश्चाहश्च रात्रिश्च ते=वे रात्रि, उषा और दिन में, (उप) सामीप्ये=निकटता से, (ह्वये) स्पर्द्धे=स्पर्धा में रहते हैं, (यतः)=इसलिये, (नः-अस्माकम्)=हमारे लिये, (इदम्)=यह, (बर्हिः) निवास प्रापकं स्थानम्=विशेष निवास स्थान, (आसदे) समन्तात् सीदन्ति प्राप्नुवन्ति सुखानि यस्यां साऽऽसत्तस्यै=जिसमें आकर सुखपूर्वक बैठते हैं, उस आसन की भांति, (भवेत्)=हो।
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों को उचित है कि इस संसार में विद्या से सदैव उपकार लेवें, क्योंकि यह रात्रिदिन सब प्राणियों के सुख का हेतु होता है॥७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(अहम्) मैं (अस्मिन्) इस (गृहे) घर में (यज्ञे) सङ्गति करण के कार्य में रहूँ। (सुपेशसा) वे जिनका रूप सुखदायी और सुन्दर है, (नक्तोषसा) रात्रि, उषा और दिन में (उप) निकट की (ह्वये) स्पर्धा में रहते हैं। (यतः) इसलिये (नः) हमारे लिये (इदम्) यह (बर्हिः) विशेष निवास स्थान, (आसदे) जिसमें आकर सुखपूर्वक बैठते हैं, उस आसन की भांति सुखदायी (भवेत्) हो।
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (नक्तोषसा) नक्तं चोषाश्चाहश्च रात्रिश्च ते। अत्र सुपां सुलुग्० इति औकारस्थाने आकारादेशः। नक्तमिति रात्रिनामसु पठितम्। (निघं०१.७) उषासा नक्तोषाश्च नक्ता चोषा व्याख्याता, नक्तेति रात्रिनामानक्ति भूतान्यवश्यायेनापि वा नक्ता व्यक्तवर्णा। (निरु०८.१०) (सुपेशसा) शोभनं सुखदं पेशो रूपं ययोस्ते। अत्र पूर्ववदाकारादेशः। पेश इति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (अस्मिन्) प्रत्यक्षे गृहे (यज्ञे) सङ्गते कर्त्तव्ये (उप) सामीप्ये (ह्वये) स्पर्द्धे (इदम्) प्रत्यक्षम् (नः) अस्माकम् (बर्हिः) निवासप्रापकं स्थानम्। बर्हिरिति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.२) अतः प्राप्त्यर्थो गृह्यते। (आसदे) समन्तात् सीदन्ति प्राप्नुवन्ति सुखानि यस्यां साऽऽसत्तस्यै॥७॥
विषयः- तत्रैतेनाहोरात्रे सुखं भवतीत्युपदिश्यते।
अन्वयः- अहमस्मिन् गृहे यज्ञे सुपेशसौ नक्तोषसावुपह्वय उपस्पर्द्धे, यतो नोऽस्माकमिदं बर्हिरासदे भवेत्॥७॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैरत्र विद्ययोपकृतेऽरात्रे सर्वप्राणिनां सुखहेतू भवत इति बोध्यम्॥७॥
विषय
नक्तोषासा [रात - दिन]
पदार्थ
१. इस सूक्त के मन्त्र १ , २ तथा ३ में प्रभु से जीव के मेल को 'यज्ञ' कहा गया है । 'यज संगतीकरण' - जीव का प्रभु से मेल । (अस्मिन् यज्ञे) - इस मेल के निमित्त मैं (सुपेशसा) - उत्तम रूपवाले (नक्तोषासा) - दिन व रात को (उपह्वये) - पुकारता हूँ । पेशस् शब्द का अर्थ - आकृति है । मेरा एक - एक दिन - रात इस प्रकार का हो जोकि मेरे जीवन को सुन्दर आकृतिवाला बनाये ।
२. मैं ऐसे ही दिन - रात को (नः) - हमारे (इदं बर्हिः) - इस पवित्र हृदय में (आसदे) - आसीन होने के लिए [उपह्वये] - पुकारता हूँ । मेरे हृदय में सदा इस बात का विचार हो कि मेरा प्रत्येक दिन व प्रत्येक रात सुन्दर बीते । ये दिन - रात मेरे जीवन को अधिकाधिक सुन्दर बनानेवाले हों । मैं दिनदूनी रात चौगुनी उन्नति करता चलूँ । यह उन्नति ही तो प्रभु से मेरा मेल करानेवाली होगी ।
भावार्थ
भावार्थ - मेरा प्रत्येक दिन मुझे और अधिक सुन्दर जीवनवाला बनानेवाला हो । मेरे हदय से यह भावना दूर न हो कि नक्त - रात्रि [नज् to be modest , bashful] मुझे उचित लज्जाशील - ह्रीनिषेव बनाये , अर्थात् मैं पापकर्म करने में संकोच करूं , सब लज्जा को परे फेंककर पापप्रवत्त न हो जाऊँ तथा उषस् [उषु दाहे] मुझे सब पापवृत्तियों का दहन करनेवाला बनाये । ऐसा होने पर प्रभु से मेरा मेल [यज्ञ] क्यों न होगा?
विषय
दिन और रात्रि के समान स्त्री पुरुष और दो राज्य संस्थाओं का वर्णन ।
भावार्थ
( अस्मिन् यज्ञे ) इस यज्ञ में ( सुपेशसा ) उत्तम, सुखदायी रूप और ऐश्वर्य वाले ( नक्तोषासा ) रात्रि और दिन दोनों को (उप ह्वये ) उपयोग में लाऊँ । जिससे ( नः ) हमारा ( इदं ) यह (बर्हिः ) आसन के समान आश्रय करने योग्य गृह भी ( आसदे ) सब प्रकार से सुख से रहने योग्य हो । राष्ट्रपक्ष में—नक्त और उषस् दो सभाएँ हैं । ‘बर्हि’ राष्ट्र है । गृहस्थ पक्ष में—नक्त और उषस् स्त्री और पुरुष हैं। वे दोनों चन्द्र के समान शीतल और सूर्य के समान तेजस्वी हों। वे उत्तम रूपवान् ऐश्वर्यवान् होकर यज्ञ में आवें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेधातिथिः काण्व ऋषिः ।। १ इध्मः समिद्धो वाग्निः । २ तनूनपात्। ३ नशशंसः । ४ इळः । ५ बर्हिः । ६ देवीर्द्वारः । ७ उषासानक्ता । ८ देव्यौ होतारौ प्रचेतसौ । ९ तिस्रो देव्यः सरस्वतीळाभारत्यः । १० त्वष्टा । ११ वनस्पतिः । १२ स्वाहाकृतयः॥ गायत्री ॥ द्वादशर्चं माप्रीसूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी हे जाणावे की या जगात विद्या उपकृत करणारी असून रात्रंदिवस ती सर्व प्राण्यांच्या सुखाचा हेतू असते. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
I invoke the glorious dawn and the deep- soothing night, both beautiful and elevating, and invite them to come and grace this holy seat of yajna.
Subject of the mantra
The aforesaid (act of yajan and travelling said in the earlier mantras) action brings happiness day and night, so it has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(aham)=I, (asmina)=this, (gṛhe)=in home, (yajñe)= stay in the work of doing associationship, (supeśasā)= those whose form is pleasant and beautiful, (naktoṣasā)=during night, dawn and day, (upa)=in close quarters, (hvaye)=are in contest, (yataḥ)=that is why herefore, (naḥ)=for us, (idam)=this, (barhiḥ)=special residence, (āsade+bhavet)=Let him be pleasant like the seat in which he comes and sits comfortably.
English Translation (K.K.V.)
I stay in the work of doing associationship in this yajan. Those, whose form is pleasant and beautiful are in completion, in close quarters during night, dawn and day. That is why this is special abode for us, in which, we come and sit comfortably, this should be as pleasant as that seat.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
It is appropriate to human beings in this world to take always favour with knowledge, because it is the cause of happiness of all living beings during day and night.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I invoke the lovely night and dawn in my house and the solemn Yajna (non-violent sacrifice) so that this my house or Yajna may be the source of happiness to all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सुपेशसा ) शोभनं सुखदं पेशो रूपं ययोस्ते पेश इति रूपनाम (निघ.३. ७) = Lovely.(र्बहि:) निवासप्रापकंस्थानम् बर्हिरिति पदनामसु पठितम् (निघ. ५.२) अत्र प्राप्त्यर्थो गृह्यते (आसदे) समन्तात् सीदन्ति प्राप्नुवन्ति सुखानि यस्यां सा सत् || = The source or cause of happiness.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All men should know that when day and night are utilized for doing good to others through the dissemination of knowledge, they become the cause of happiness and pleasure to all.
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