Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 164 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 1
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒स्य वा॒मस्य॑ पलि॒तस्य॒ होतु॒स्तस्य॒ भ्राता॑ मध्य॒मो अ॒स्त्यश्न॑:। तृ॒तीयो॒ भ्राता॑ घृ॒तपृ॑ष्ठो अ॒स्यात्रा॑पश्यं वि॒श्पतिं॑ स॒प्तपु॑त्रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य । वा॒मस्य॑ । प॒लि॒तस्य॑ । होतुः॑ । तस्य॑ । भ्राता॑ । म॒ध्य॒मः । अ॒स्ति॒ । अश्नः॑ । तृ॒तीयः॑ । भ्राता॑ । घृ॒तऽपृ॑ष्ठः । अ॒स्य॒ । अत्र॑ । अ॒प॒श्य॒म् । वि॒श्पति॑म् । स॒प्तऽपु॑त्रम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्य वामस्य पलितस्य होतुस्तस्य भ्राता मध्यमो अस्त्यश्न:। तृतीयो भ्राता घृतपृष्ठो अस्यात्रापश्यं विश्पतिं सप्तपुत्रम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य। वामस्य। पलितस्य। होतुः। तस्य। भ्राता। मध्यमः। अस्ति। अश्नः। तृतीयः। भ्राता। घृतऽपृष्ठः। अस्य। अत्र। अपश्यम्। विश्पतिम्। सप्तऽपुत्रम् ॥ १.१६४.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ त्रिविधाग्निविषयमाह ।

    अन्वयः

    वामस्य पलितस्याऽस्य प्रथमो होतुस्तस्य भ्रातेवाऽश्नो मध्यमो घृतपृष्ठोऽस्य भ्रातेव तृतीयोऽस्ति। अत्र सप्तपुत्रं विश्पतिं सूर्यमपश्यम् ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (अस्य) (वामस्य) शिल्पगुणैः प्रशस्तस्य (पलितस्य) प्राप्तवृद्धावस्थस्य (होतुः) दातुः (तस्य) (भ्राता) भ्रातेव (मध्यमः) मध्ये भवः पृथिव्यादिस्थो द्वितीयः (अस्ति) (अश्नः) भोक्ता (तृतीयः) (भ्राता) बन्धुवद्वर्त्तमानः (घृतपृष्ठः) घृतं जलं पृष्ठेऽस्य (अस्य) (अत्र) (अपश्यम्) (विश्पतिम्) प्रजायाः पालकम् (सप्तपुत्रम्) सप्तविधैस्तत्त्वैर्जातम् ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। अस्मिञ्जगति त्रिविधोऽग्निरस्ति एको विद्युद्रूपः द्वितीयः काष्ठादिप्रज्वलितो भूमिस्थस्तृतीयः सवितृमण्डलस्थः सन् सर्वं जगत् पालयति ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब एकसौ चौसठवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में तीन प्रकार के अग्नि के विषय को कहते हैं ।

    पदार्थ

    (वामस्य) शिल्प के गुणों से प्रशंसित (पलितस्य) वृद्धावस्था को प्राप्त (अस्य) इस सज्जन का बिजुलीरूप पहिला, (होतुः) देने वा हवन करनेवाले (तस्य) उसके (भ्राता) बन्धु के समान (अश्नः) पदार्थों का भक्षण करनेवाला (मध्यमः) पृथिवी आदि लोकों में प्रसिद्ध हुआ दूसरा और (घृतपृष्ठः) घृत वा जल जिसके पीठ पर अर्थात् ऊपर रहता वह (अस्य) इसके (भ्राता) भ्राता के समान (तृतीयः) तीसरा (अस्ति) है, (अत्र) यहाँ (सप्तपुत्रम्) सात प्रकार के तत्त्वों से उत्पन्न (विश्पतिम्) प्रजाजनों की पालना करनेवाले सूर्य को मैं (अपश्यम्) देखूँ ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। इस जगत् में तीन प्रकार का अग्नि है-एक बिजुलीरूप, दूसरा काष्ठादि में जलता हुआ भूमिस्थ और तीसरा वह है जो कि सूर्यमण्डलस्थ होकर समस्त जगत् की पालना करता है ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रभु, जीव व प्रकृति

    पदार्थ

    १. प्रभु कैसे हैं (अस्य) = इस (वामस्य) = सुन्दर (पलितस्य) = पालयिता (होतुः) = दानशील तस्य उस प्रभु का (मध्यमः भ्राता) = मध्य में रहनेवाला भ्राता जीव (अश्न:) = खानेवाला है। वे प्रभु सुन्दर हैं, संसार का पालन करनेवाले हैं, वे होता हैं। उसने प्रकृति के विविध अंशों को विविध प्राणियों के लिए दिया हुआ है। जीव प्रभु और प्रकृति के मध्य में है। न तो वह प्रभु के समान पूर्ण चेतन है और न प्रकृति के समान एकदम जड़। अपनी मध्यम स्थिति के कारण यह खाता भी है और स्वाद से खाता है। २. (अस्य) = इस प्रभु का (तृतीयः भ्राता) = तीसरा भाई - प्रकृति (घृतपृष्ठः) = चमकते हुए पृष्ठवाली है [घृ दीप्ति] । इसका उपरला आवरण चमकीला है। इसकी चमक जीव को अपनी ओर खेंचती है। वेदमाता कहती है - इसका तो पृष्ठ ही चमकीला है। हे जीव ! यह ऊपर की चमक तुझे आकृष्ट न कर ले । ३. प्रकृति में आसक्त न होकर यह (विश्पतिम्) = सब प्रजाओं के पालक तथा (सप्तपुत्रम्) = सात पुत्रों के समान [पुत्र = which is produced] सात लोकों का निर्माण करनेवाले प्रभु को (अपश्यम्) = देखेगा। प्रभु ने इस ब्रह्माण्ड में 'भूः, भुव: स्व:, महः, जनः, तपः और सत्यम्' – इन सात लोकों का निर्माण किया है। योगमार्ग में चलते हुए सातवीं भूमिका में पहुँचकर हम सत्यलोक में जन्म लेते हैं। उस समय हम प्रभु की अधिक-से-अधिक ज्योति को धारण कर रहे होते हैं । -

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु 'सुन्दर, पालक व दाता' हैं। जीव प्रकृति व ब्रह्म के मध्य में रहता हुआ सब भोगों को भोगता है। प्रकृति से बना संसार सोने की भाँति चमकीला है। यहाँ हमें प्रभु का दर्शन करके सातवें सत्यलोक में पहुँचना चाहिए।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    गृहपति या राजावत् सप्त प्राण भात्मा का वर्णन पक्षान्तर में सूर्य, राजा परमेश्वर का वर्णन, वाम, पलित, होता का और उसके भ्राता अश्न और घृतपृष्ठ का रहस्य।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (वामस्य पलितस्य होतुः) उत्तम आहुति देने वाले वृद्ध पुरुष का ( अश्नः ) सब पदार्थों को खाजाने वाला अग्नि ही ( मध्यमः भ्राता ) बीच के भाई के समान उसका सहायक है और ( तृतीयः ) तीसरा ( भ्राता ) भाई अग्नि, विद्युत् ( घृतपृष्ठः ) जल को अपनी पृष्ठ पर धारण करता है और ( अत्र ) इसी अग्नि में ( सप्तपुत्रम् ) सात तत्वों से उत्पन्न ( विश्पतिम् ) प्रजाओं के पालक सूर्य को भी ( अपश्यम् ) देखता हूं । उसी प्रकार ( अस्य) इस ( वामस्य ) सब पदार्थों का सेवन करने वाले ( पलितस्य ) ज्ञानवान् या वृद्ध ( होतुः ) अन्नादि भोजन ग्रहण करने वाले, देहवान् जीव का ( भ्राता ) भरण पोषण करने वाला ( मध्यमः ) बीच में रहने वाला ( अश्नः ) मझोले भाई के समान अन्नादि खाने वाला जाठर अग्नि है । अथवा बीच में आत्मा और इन्द्रियों के बीच में स्थित ( अश्नः ) मन सब का भोक्ता होकर विद्यमान है। और ( अस्य ) इसका ( तृतीयः ) तीसरा सर्वोत्कृष्ट (भ्राता) पोषक आत्मा ( घृतपृष्ठः ) जलों में व्यापक या जलों के वर्षक विद्युत् के समान और सब अंगों में तेज और बल का सेचन करने वाला आत्मा है । उस आत्मा या देह में ही मैं साधक ( सप्तपुत्रं ) सात पुत्रों वाले ( विश्पतिम् ) प्रजा के स्वामी गृह पति के समान ( सप्तपुत्रं विश्पतिम् ) शिरोगत सात मूर्धन्य प्राणों को धारण करने वाले, और शरीर के भीतर प्रविष्ट सब अंगों की प्रजा को राजा के समान पालना करने वाले आत्मा का मैं ( अपश्यम् ) साक्षात् करता हूं। (२) सूर्य के पक्ष में—आरोग्य के लिये सबके सेवन करने योग्य होने से सूर्य ही 'वाम' है। सबका पालक और प्रेरक, सबसे अधिक सनातन एवं सर्वत्र प्रकाश द्वारा व्यापक होने से सूर्य ही 'पलित' है। उसका मध्यम भ्राता बीच अन्तरिक्ष में स्थित वायुवत् व्यापक होने से 'अश्न' है । वृष्टि के लिये भूमि से रश्मियों से सोखे जल का आहरण करने से वह 'भ्राता' है। सूर्य का तीसरा भाई 'घृतपृष्ठः' यह अग्नि है जो घृत द्वारा सेचन करने से वृद्धि को प्राप्त होता है। वह भी सूर्य के तेज को धारण करने से 'भ्राता' है। सब में ही अग्नि तत्व सर्पणशील रश्मियों को पुत्र के समान उत्पन्न करने वाला होने से ‘सप्त रश्मि’ और प्रजाओं का पालक होने से 'विश्पति' है। सर्वत्र उसी को देखता हूं। (४) परमेश्वर पक्षमें—समस्त विश्व को वमन कर देने, अपने में से उगल देने या रचनेहारा वा परम सेव्य परमेश्वर 'वाम' है। अपने में लेलेने हारा होने से वह 'होता' है। सर्व पालक और व्यापक और संञ्चालक होने या पुण्य पुरुष होने से 'पलित' है। कर्म फलों का भोक्ता जीव उसके मध्यम भ्राता के समान है। भरण पोषण योग्य होने या देह का भरण पोषण करने से ' भ्राता' है। अल्प शक्ति होने से, देह के बीच में रहने से 'मध्यम' है। इसका तीसरा भाई घृत अर्थात् जलका सेचन करने वाले मेघ के समान 'घृत' अर्थात् अन्न, ज्ञान और वीर्य का सेचन, दान, और वर्षण करने वाला, आचार्य, दाता और वीर्य से युक्त सदेह पुरुष है। (अत्र) इसी पुरुष में ( सप्तपुत्रं विश्पतिं अपश्यं ) सात पुत्रों से युक्त प्रजापति के समान सप्त प्राणों के पिता प्रजापति का स्वरूप साक्षात् करता हूं । (५) अथवा, कारणात्मक सूत्रात्मा वायु, व्यापक होने से 'अश्व' है। कार्यात्मा तीसरा यह शरीर या स्थूल जगत् रूप है । समस्त सर्पणशील सूर्यादि लोक परमेश्वर के पुत्र होने से परमेश्वर 'सप्तपुत्र' है सब उसमें प्रविष्ट लोकों, और प्रजाओं का पालक होने से वहीं 'विश्पति' है। मैं उस सर्वोत्पादक, सर्वपालक का साक्षात् दर्शन करूं।

    टिप्पणी

    ( समस्त सूक्त देखो अथर्व० का० ९ । सू० ९, १० )

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः॥ देवता—१-४१ विश्वदेवाः। ४२ वाक् । ४२ आपः। ४३ शकधूमः। ४३ सोमः॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च। ४५ वाक्। ४६, ४७ सूर्यः। ४८ संवत्सरात्मा कालः। ४९ सरस्वती। ५० साध्या:। ५१ सूर्यः पर्जन्यो वा अग्नयो वा। ५२ सरस्वान् सूर्यो वा॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप्। ८, ११, १८, २६,३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप्। २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२, त्रिष्टुप्। १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२, १५, २३ जगती। २९, ३६ निचृज्जगती। २० भुरिक पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः। ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती। ५१ विराड् नुष्टुप्।। द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नी, काल, सूर्य, विमान इत्यादी पदार्थ व ईश्वर; विद्वान व स्त्री इत्यादींच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. या जगात तीन प्रकारचा अग्नी आहे. एक विद्युतरूपी, दुसरा काष्ठ इत्यादीमध्ये प्रज्वलित होणारा भूमीस्थ व तिसरा सूर्यमंडळापासून प्राप्त होऊन जगाचे पालन करतो तो अग्नी. ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Of this splendid and hoary yajaka, Sun, giver of light and energy and receiver of the waters and essences of the earth and the skies, the second, younger and middling brother is vayu, wind and electricity abiding in the middle region of the skies, the energy being voracious and present everywhere. The third and youngest brother is Agni, fire, which is sprinkled with water and ghrta in yajna. It is the sustainer of living beings and it is blest with seven children, i.e., seven rays of light in the spectrum. I wish I could know this ancient, brilliant and sustaining power and friend of life.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The three kinds of AGNI are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Of this old experienced, admirable liberal donor, all pervading electricity is the first brother. The fire on earth consumes all things and is kindled with a button is the second brother. I have beheld the sun who is the upholder of all beings and is born of seven elements (or has seven rays as seven sons) as the third and the eldest brother.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    In this world, there is Agni of three kinds. The first is in the form of electricity; the second is the fire on earth kindled with fuel etc. and the third is the sun in the sky that upholds the whole universe.

    Foot Notes

    (आमस्य ) शिल्पगुणै: प्रशस्तरय = Of the person admired on account of artistic quality and other virtues-Admirable. (पलितस्य) प्राप्तवृद्धाषस्वस्य = Of the old. ( सप्तपुत्नम् ) सप्तविधैस्तत्वैः जातम् = Born out of seven elements or articles. The seven elements referred to by the commentator in his translation of are the earth, water, fire, air, Virat, subtle atom and matter.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top